Thursday, 9 February 2012

दर्द...


दिल के ज़ख़्मों से बूंद-बूंद रिस्ता दर्द 
जब कभी,जज़्ब होता चला जाता हैं कहीं 
 जैसे सुखी मिट्टी में पानी 
और परत दर परत जमता चला जाता है वो दिल का दर्द, 
जैसे किसी चीज़ पर चढ़ाई 
गई मिट्टी के लेप की कई परतें जो एक दिन 
कई परतों के चढ़ाये जाने कारण आ गिरती हैं नीचे
वैसे ही एक दिन जब दिल के दर्द की परतें 
छोड़ती हैं अपनी जड़ें और गिरती हैं 
मन के धरातल पर कहीं
तब आता है एक सैलाब और फूटता है एक ज्वालामुखी 
और उसमें से निकलती हैं, मरी हुई भावनाओं की 
कुछ लाशें, कुछ कुचले हुए जज़्बात 
और तड़पता,सिसकता हुआ सा खुद का वजूद...     

13 comments:

  1. उफ़ पल्लवीजी बिल्कुल सटीक चित्रण कर दिया।

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया वंदना जी ...

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  2. सटीक चित्रण|शुभकामनाएं|||||||||

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  3. man ki bhavnayein ,dard phoote hai to jwalamukhi hi phoota hai .......dard ka sateek chtran

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  4. दबी दर्द का ज्वालामुखी बनना...बहुत अच्छी अभिव्यक्ति|

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  5. आर डी सक्सेना पटना11 February 2012 at 16:01

    सूखे शैवाल की भित्तियों की तरह मन के कोने मे दफन अनुभूतियाँ जरा सी नमी मिलते ही फिर जीवंत हो जाती हैं । इस ज़रा सी नमी की तलाश में भटकते मन, सरोवर के दिवा स्वप्न मे खोये रहते हैं बावरे बावरे से ! सूखे शैवाल की भित्तियों भी मन की गहराई से उकसाती रहती हैं निरंतर !

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  6. वुजूद के दर्द को गाती मार्मिक कविता.

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  7. This comment has been removed by the author.

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