दिल के ज़ख़्मों से बूंद-बूंद रिस्ता दर्द
जब कभी,जज़्ब होता चला जाता हैं कहीं
जैसे सुखी मिट्टी में पानी
और परत दर परत जमता चला जाता है वो दिल का दर्द,
जैसे किसी चीज़ पर चढ़ाई
गई मिट्टी के लेप की कई परतें जो एक दिन
कई परतों के चढ़ाये जाने कारण आ गिरती हैं नीचे
वैसे ही एक दिन जब दिल के दर्द की परतें
छोड़ती हैं अपनी जड़ें और गिरती हैं
मन के धरातल पर कहीं
तब आता है एक सैलाब और फूटता है एक ज्वालामुखी
और उसमें से निकलती हैं, मरी हुई भावनाओं की
कुछ लाशें, कुछ कुचले हुए जज़्बात
और तड़पता,सिसकता हुआ सा खुद का वजूद...
उफ़ पल्लवीजी बिल्कुल सटीक चित्रण कर दिया।
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया वंदना जी ...
Deleteआपके उत्कृष्ट लेखन के लिए शुभकामनाएं
ReplyDeleteसुमन सिन्हा जी का परिचय देखें यहां ...
सटीक चित्रण|शुभकामनाएं|||||||||
ReplyDeleteman ki bhavnayein ,dard phoote hai to jwalamukhi hi phoota hai .......dard ka sateek chtran
ReplyDeleteदबी दर्द का ज्वालामुखी बनना...बहुत अच्छी अभिव्यक्ति|
ReplyDeletebahut sunder steek chitran,behtreen post
Deleteसूखे शैवाल की भित्तियों की तरह मन के कोने मे दफन अनुभूतियाँ जरा सी नमी मिलते ही फिर जीवंत हो जाती हैं । इस ज़रा सी नमी की तलाश में भटकते मन, सरोवर के दिवा स्वप्न मे खोये रहते हैं बावरे बावरे से ! सूखे शैवाल की भित्तियों भी मन की गहराई से उकसाती रहती हैं निरंतर !
ReplyDeleteवुजूद के दर्द को गाती मार्मिक कविता.
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