Tuesday, 29 January 2013

न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है....

न जाने माँ इतनी हिम्मत रोज़ कहाँ से लाती है
के हों कितने ही गम पर वो सदा मुसकुराती है
हर रोज़ कड़ी धूप के बाद चूल्हे की आग में तपती  है
मगर सुबह खिले गुलाब सी नज़र आती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

खुद पानी पीकर गुज़र करती है, मगर हमें खिला के सुलाती है
अगर न हो घर में कुछ तो रुई के फ़ाहे को घी का नाम दे बच्चों को बहलाती है
खुद भूखे पेट सोकर भी वो हमे खिलाती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

अंदर ही अंदर कोयले सी सुलगती-जलती है
मगर हर बार ठंडी फुहार सी नज़र आती है
जो हमेशा केवल प्यार बरसाती है
जो गम और खुशी में सदा ही मुसकाती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

यूं  तो रोज़ देती है हौंसला मगर खुद अंदर ही अंदर घुली जाती है
मगर पिता और परिवार के समीप एक सशक्त ढाल सी नज़र आती है
आज भी थामकर उंगली वो सही राह दिखा जाती है
इसलिए शायद जीवन की पाठशाला का पहला सबक केवल माँ ही पढ़ती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है....      

Sunday, 20 January 2013

लो बीत गया फिर, एक और साल ....

लो हर बार की तरह बीत गया एक और साल,
फिर एक बार आया है नया साल 
मगर 
कुछ भी तो नहीं बदला मेरी ज़िंदगी में, नया जैसा तो कुछ हुआ ही नहीं कभी,
यूं लगता है जैसे 
बस एक वही साल आकर ठहर सा गया है, मेरी ज़िंदगी में कहीं
कि जिसमें हम मिले थे कभी
तब से अटकी हूँ मैं बस उसी एक साल में, पता है क्यूँ ?
क्यूंकि उस एक साल में ही कुदरत ने जैसे मुझे
ज़िंदगी के सारे मौसम एक साथ ही दे दिये थे, ताउम्र गुज़ारने के लिए,
लेकिन देखो न, केवल पतझड़ को छोड़कर
मेरा साथ किसी मौसम ने दिया ही नहीं कि आज भी
हम राही बन साथ है वो मेरे,
साथी मेरे 
प्यार का भी क्या कमाल मौसम होता है न,
कि गुलाब ही नहीं, बल्कि जंगली फूल तक खूबसूरत नज़र आने लगते है
अधरों पर नित नये गीत स्वतः ही सजने लगते है
ज़िंदगी इतनी खूबसूरत सी नज़र आती है कि जैसे 'जन्नत' अगर कहीं है
तो बस वह यहीं है 
मगर किसे पता होता है कि ज़िंदगी के यह चार पल 
किसी जादुई फरेब से कम नहीं होते 
जैसे किसी जादूगर ने अपने जादू से एक खूबसूरत दुनिया का निर्माण किया  
और हकीकत से सामना होते ही जैसे प्यार का सारा जादू छू सा हो जाता है
और हम अचानक ही आ गिरते हैं हकीकत के धरातल पर
जैसे मुझ संग तुम्हारा प्यार
और बस गुनगुनाते रह जाते यह गीत के
प्यार के लिए, चार पल कम नहीं थे, कभी तुम नहीं थे कभी हम नहीं थे .....:)
     

Saturday, 5 January 2013

रेत सा रिश्ता ...


क्यूँ रिश्ता मुझसे अपना तुमने रेत सा बनाया 
क्यूँ आते हो तुम लौट-लौटकर मेरी ज़िंदगी में गये मौसम की तरह 
जानते हो ना, कभी-कभी खुश गवार मौसम भी जब लौटकर आता है 
तो कुछ शुष्क हवायें भी अपने साथ लाता है 
जो लहू लुहान कर दिया करती है न सिर्फ तन बल्कि मन भी  
और तब तो तुम्हारे प्यार की यादों का 
कोमल एहसास भी भर नहीं पाता उन ज़ख़्मों को 
 तब ऐसा महसूस होता है मुझे, जैसे तुमने ही ठग लिया है मुझे
मानो  
 मैं स्तब्ध सी खड़ी हूँ और कोई आकर मेरा सब कुछ लिये जा रहा है मेरे हाथों से 
खुदको इतना जड़ हताश और निराश आज से पहले कभी नहीं पाया मैंने
शायद इसलिए तुमसे बिछड्ने के ग़म ने ही मुझे बेजान सा कर दिया है
की एक खामोशी सी पसरा गयी है मेरे अंतस में
मगर यह कैसी विडम्बना है हमारे प्यार की
कि मुझे इतना भी अधिकार नहीं  
 कि मैं रोक सकूँ उसे   
यह कहकर कि रुको यह तुम्हारा नहीं, जिसे तुम लिये जा रहे हो अपने साथ  
क्यूंकि सच तो यह है कि अब तो मुझसे पहले उसका अधिकार है तुम पर
तुम तो अब मेरी यादों में भी उसकी अमानत बनकर आते हो 
तो किस हक से कुछ भी कहूँ उससे    
इसलिए खड़ी हूँ पत्थर की मूरत बन यूँ ही, अपने हाथों की हथेलियों को खोले 
और वो लिये जा रहा है मेरा सर्वस्व,
यूँ लग रहा है मुझे, जैसे तुम रेत बनकर फिसल रहे हो मेरे हाथों से 
और वो मुझे चिढ़ाता हुआ सा लिए जा रहा है तुमको अपने साथ  
मुझ से दूर बहुत दूर....
फिर कभी न मिलने के लिये   
यह कहते हुए कि मेरे रहते भला तुमने ऐसा सोच भी कैसे
 कि यह तुम्हारा हो सकता है  
तुम से पहले अब  
यह तो मेरा है, मेरा था, और मेरा ही रहेगा हमेशा....