Wednesday, 18 December 2013

खुद भी देखो एक बार प्रकृति बनकर....


सर्दियों की ठंडी ठंडी सुबह में मैं और मेरे घर का आँगन 
मध्यम-मध्यम बहती हुई शीत लहर सी पवन 
जैसे मेरे मन में किसी गोरी के रूप को गढ़ रहे है
जैसे ही हवा के एक झौंके से ज़रा-ज़रा झूमता है एक पेड़
तो ऐसा लगता है जैसे किसी सुंदर सलोनी स्त्री के अधरों पर बिखर रही है
एक मीठी सी मुस्कान, 
दूर कहीं बादलों से ढके आकाश में 
किसी एक चिड़िया का नज़र आ जाना 
यूँ लगता है, जैसे सूने किसी पनघट पर नीर लेने आयी 
किसी कामायनी के घूँघट का ज़रा हल्के से सरक जाना 
और उसकी एक हलकी सी झलक का दिख जाना...

आह ! कितना अदबुद्ध है यह नज़ारा, 
जी चाहता है इसे हमेशा-हमेशा के लिए अपने अंतस में भरलूँ 
कि जब मन उदास होता है, साथ अवसाद होता है। 
तब इन्हीं सुंदर कोमल खूबसूरत पलों को याद करने पर 
अशांत मन ज़रा देर के लिए ही सही ही 
ठंडक और सुकून पाता है 
तब प्रकृति के यही नज़ारे हमारे अंदर नव जीवन का संचार करते है 
प्रेरित करते हैं हमें पुनः नयी शुरुआत करने के लिए 
जानते हो क्यूँ ? क्यूंकि यह प्रकृति हमारी माँ है 
और कोई भी माँ अपने किसी भी बच्चे को 
यूँ दुख में विलीन हो, अवसाद में गुम होता नहीं देख सकती 
मगर अफ़सोस कि यह वो माँ है, 
जिस पर उसके अपने ही बच्चे कुठाराघात करने से बाज़ नहीं आते। 
किन्तु फिर भी जब तक उसमें प्राण बाकी है। 
जहां तक भी संभव है वह अपने बच्चों को निराशा नहीं देती 

उस पर भी जब हमारे अत्याचारों की अति पर 
कोई प्रकृतिक आपदा आती है जैसे    
सुनामी या बाढ़, बादल का फटना या ज़मीन का धंसना, 
तब भी त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए भी 
मढ़ देते है, सारा दोष उसी के सर पर 
बिना यह सोचे कि यह उस माँ का गुस्सा नहीं 
बल्कि उसकी एक दरकार है 
कि अब भी वक्त है संभल जाओ 
वरना एक वक्त ऐसा आयेगा 
जब मैं स्वयं चाहकर भी 
नहीं लुटा पाऊँगी तुम पर अपना प्यार 
अपने सौंदर्य की वो बहार, जिसे देख-देखकर तुम बड़े हुए हो  
जिसकी धूप छाँव में, पेड़ो के पीछे छिपकर कभी खेले कभी सोये 
जिसने अंजाने में ही तुम्हें जीवन के मूल्य सिखा दिये। 

अरे ज़रा तो सोचो क्या दोगे तुम अपनी आने वाली पीढ़ी को ?
यह कंक्रीटों का जंगल, 
या पंखे और AC की घुटन भरी हवा, 
ज़रा एक बार दिल से सोचकर देखो। 
गूगल पर ही दिखा पाओगे उन्हें यह प्रकृतिक नज़ारे 
यह पंछी नदिया पवन के झोंके, यह चाँद सूरज, यह पेड़ पौधे, 
यह फूल बगिया, यह जंगल, यह जानवर यह सारे नज़ारे, 
क्या शेष रह जाएगा पास में तुम्हारे ? 
न खाने को शुद्ध अन्न होगा, न पीने को साफ पानी। 
तब क्या अपनी ही संतान को ऐसा विष देना चाहोगे तुम ? नहीं ना ! 
तो ज़रा एक बार मेरे बारे में भी तो सोचो, 
सोचो अपने दिल पर हाथ रखकर सोचो। 
मैं कैसे दे दूँ तुम्हें वो विष, 
जो तुमने मेरे आँचल में घोल दिया है।
मुझे माँ रूप में खुद अपने अंदर देखो, 
देखो ज़रा "खुद भी देखो कल्पना मात्र में एक बार प्रकृति बनकर" 
तब शायद तुम समझ सको मेरा दर्द।
        

Wednesday, 11 December 2013

एक मुलाक़ात चाँद के साथ...


कल रात मैंने चाँद को देखा। सूने आकाश में उदास बहुत उदास सा जान पड़ा वो मुझे। कल रात ऐसा लगा जैसे बहुत कुछ कहना चाहता है वो मुझ से। वरना इस कड़कड़ाती ठंड की ठिठुरती रात में भला वो अपनी पूरी जगमगाहट लिए मेरी खिड़की पर क्या कर रहा था। शायद बहुत कुछ था उसके पास, जो वो कहना चाहता था मुझसे, मगर इस चमक चाँदनी का स्वांग भरने की क्या जरूरत थी उसे। मैं तो यूँ भी उसकी दीवानी हूँ। लेकिन शायद वह अपने रंग रूप के माध्यम से मुझे लुभाना चाहता था। मुझे आकर्षित करना चाहता था, ताकि में उसकी सुंदरता से मोहित होकर ही सही उसकी बात को सुन लूँ। क्यूंकि यूँ तो आमतौर पर चाँद से बातें तो सभी किया करते हैं। मगर उसके दिल की कोई सुनता ही नहीं। सब बस उसे अपनी आप बीती सुनना चाहते है और सुनाते भी है। मगर जाने क्यूँ उसकी आँखों की नमी, उसका दर्द, उसका अकेलापन किसी को दिखाई ही नहीं देता कभी...। आखिर हर किसी को कोई एक तो चाहिए ही होता है ना जो शांति से, पूरी ईमानदारी के साथ तुम्हारी बात सुन सके! नहीं ? इसलिए तो होते हैं ना, रिश्ते प्यार मोहब्बत के, दोस्ती के, नाते रिश्तेदारों के। हाँ यह बात अलग है कि इन रिश्तों की भीड़ में भी कोई एक ही ऐसा होता है जिसे अपने दिल की बात कह देने के बाद कुछ दिल हल्का सा महसूस करता है। मगर कोई होता तो है न...पर इस चाँद के पास तो कोई है ही नहीं। यह किस से कहे अपने दिल की बात, अपने जज़्बात। शायद आज इसलिए इसका मौन मुखर हो ही गया। आखिर कोई कब तक चुप रहे और सहे यह खामोशियाँ। माना की खामोशियों का भी अपना एक अलग ही वजूद होता है, जो स्थिति परिस्थिति के हिसाब से अपना रंग बदलता है, मगर हमेशा मन को अच्छी नहीं लगती यह खामोशियाँ...तभी तो इंसान ने समाज बनाया और समाज ने आपसी रिश्ते। सच वरना कितना अकेला होता न यह इंसान, इस प्रकृति की तरह। अकेला खामोश तन्हा, जो चाहकर भी कभी अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता। सोचो ज़रा कैसा लगता हो उन मूक-बधिर लोगों को, ध्यान दिया है क्या कभी उनकी पीड़ा पर, जो न अपने मन की कह सकते है ना सुन सकते हैं। कितने अंजान है वो इस कहने सुनने के सुख से! उन्हें तो पता ही नहीं कि किसी को कुछ कहना और किसी से कुछ सुनना किस तरह न सिर्फ जीवन बल्कि कई बार ह्रदय परिवर्तन का कारण भी बन जाता है, और एक हम हैं जो अब भी लड़का लड़की की इच्छाओं के प्रति अपने ही अहम के कुएं में कूपमंडूक बने घुटे जा रहे हैं। बिना यह सोचे, बिना यह समझे कि हमें केवल एक स्वस्थ शिशु भी मिल जाये तो बहुत है। क्या फर्क पड़ता है कि वह लड़का है या लड़की। ज़रा सोचो। एक बार इस नज़र से भी सोचकर तो देखो। मेरे दुश्मन, मेरे भाई मेरे हम साये....  

Wednesday, 4 December 2013

सर्द हवाओं में ठिठुरते एहसास....और तुम


सर्द हवाओं में ठिठुरते एहसास और तुम 
इन दिनों बहुत सर्दी है यहाँ,  
एकदम गलन वाली ठंड के जैसी ठंड पड़ रही है
जिसमें कुछ नहीं बचता
सब गल के पानी हो जाना चाहता है
जैसे रेगिस्तान में रेत के तले सब सूख जाता है ना 
बिलकुल वैसे ही यहाँ की ठंड में भी कुछ नहीं बचता  
यहाँ तक के खुद का वजूद भी नहीं,अस्तित्व हीन सी लगने लगती है ज़िंदगी 
जिसकी न कोई राह है, न मंज़िल, फिर भी बस चले जा रही है 
किसी बर्फ की चट्टान के जैसी ज़िंदगी, जो कतरा-कतरा पिघल रही है 
ऐसे में जब कभी घर के बाहर निकलना होता है 
तब जैसे इन सर्द हवाओं में मेरे सारे एहसास ठिठुर जाते है 
सारे जज़्बात सिकुड़ जाते है  
और फिर जब मौसम की ठंडक 
धीरे-धीरे किसी बुझते हुए दिये की कप कपाती लौ की भांति 
मेरे दिमाग को सुन्न करना आरम्भ करती है 
तब मैं भी चुपके से जला लेती हूँ अपने अंदर तुम्हारे नाम की एक सिगड़ी
और डाल देती हूँ उसमें कोयला नुमा जलती हुई कुछ यादें,वादे, मुलाकातें 
तब उन यादों,वादों और मुलाकातों की गरमी पाकर 
फिर जी उठते है मेरे अंदर के कुछ मरे हुए एहसास मेरे जज़्बात....और तुम