दिन भर की भागा दौड़ी और किसी न किसी काम में उलझे रहने के कारण
जब रात को थक कर जा लेटता है यह शरीर
तब अक्सर वो मन के जागने का समय होता है
उस वक्त जाने कैसे सारा दिन की थकान के बाद भी
शरीर भले ही शिथिल सा निढाल हो जाये
मगर मन, उसको तो जैसे उसी वक्त रात का आकाश मिलता है
खुल कर ख़्यालों में उड़ने के लिए
उनींदी सी आंखे जब अंधेरे कमरे में सफ़ेद छत को निहाराते हुए
सारे दिन का लेखा जोखा सोच रही होती है
तब बीच-बीच में उसी छत पर पड़ता बाहरी वाहनों का प्रकाश
सहसा ऐसा महसूस होने लगता है
जैसे सूने पड़े मरुस्थल से जीवन रूपी पौधे पर ऊर्जा के कुछ छींटे
जो सूने जीवन के पौधे को थोड़ी ऊर्जा दे जाते है
कि कहीं वो मर ही न जाये
तब एक वक्त ऐसा भी आता है
जब उस सोच का भार उठाती पलकें बंद होने को मजबूर हो जाती है
और तब जैसे अचानक वक्त एक बच्चे की तरह
भागकर इस सुबह से रात तक के सफर की यह दौड़ जीत लेता है
और झट से सुबह हो जाती है
और झट से सुबह हो जाती है
जैसे न जाने कब से उसे बस इस ही एक पल का इंतज़ार हो
कि कब यह पलकें बंद हो
और कब वो दौड़कर रोज़ की भांति यह रात से सुबह तक की होड़ जीत ले
वास्तव में होता भी यही है,
हर रोज़ घड़ी के अलार्म सी बजती घंटी
हर रोज़ घड़ी के अलार्म सी बजती घंटी
जब सुबह-सवरे मुझे हड़बड़ाहट से जगाती है
तब अक्सर मन में यह ख़्याल आता है
कि स्मृतियाँ रात भर नींद को धुनती रहती है
और सुबह तक तैयार कर देती है नए सिरे से इंतज़ार की एक नयी रेशमी चादर
शायद जीना इसी का नाम है ....