Tuesday, 26 June 2012

ज़रा सोच ओ बंदे ...


यूं तो ज़िंदगी हर लम्हा, हर पल करवटें बदलती ही रहती है  
जिसकी एक करवट कभी रातों का जागरण दे जाती है 
तो कभी उस ही ज़िंदगी की दूसरी करवट पर सुकून की नींद आ जाती है 
और तब उस मीठी नींद से जागने का कभी मन नहीं होता
बिलकुल किसी हसीन ख़्वाब की तरह.....

तो कभी सागर की लहरों सी मुसकुराती है ज़िंदगी
किसी बच्चे के जन्म की तरह 
किसी बंजर ज़मीन पर फूटे किसी बीज की तरह 
एक लंबे अंधकार के बाद मिली किसी रोशनी की तरह 
किसी थके हुए मुसाफिर को मिली ऊर्जा की तरह.....

जैसे किसी समंदर की कोई ठंडी सी लहर    
तपती हुई धूप में जल रहे किसी मुसाफिर को 
अचानक से आकर ठंडक दे जाती है
बेटियाँ भी तो वही ठंडी सी लहर की तरह ही होती है। है ना !!! 
जो संतान पाने के ताप में जल रहे अपने अभिभावकों को 
मातृ-पितृ के अनुपम रिश्ते से भिगो देती है  
यानि कहीं न कहीं प्रकृति अपने आप में संतुलित और संतुष्ट नज़र आती है।
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तो हम क्यूँ उस लहर की ठंडक का आनंद नहीं ले पाते 
क्यूँ उस लहर को आने से पहले ही रोक दिया जाता है,  
उस सागर पर बांध बनाकर, जिस बांध के कारण कमजोर होता सागर 
फिर कभी दे ही नहीं पाता कोई ठंडी लहर रूपी बेटी, न बेटे नुमा तूफान  
तो फिर क्यूँ.....
 हे मनुष्य तू इतना व्याकुल रहा करता है तू सदा 
क्यूँ तुझे स्वीकार नहीं उस ईश्वर के आशीर्वाद रूप में मिली एक सुंदर कन्या 
तुझे तो गर्वान्वित होना चाहिए 
कि तेरे घर एक स्वस्थ बेटी ने जन्म लिया और तुझे पिता कहलाने का सम्मान दिया
ज़रा सोच अगर तुझे बेटा न बेटी,जो कुछ भी ना होता 
जो होता भी, मगर यदि कोई विकृति साथ होती उसके, 
तो क्या तब भी तू खुश होता? 
नहीं क्यूंकि खुश होना तेरी फितरत में ही नहीं
तू तब भी था रोता, तू अब भी है रोता
ज़रा सोच ओ बंदे जो यह भी न होता और वो भी न होता 
तो तेरा क्या होता 
इसलिए जो मिला है उसे ईश्वर का आशीर्वाद और अनुकंपा मान 
और आभार प्रकट कर, कि तुझे एक स्वस्थ संतान तो मिली।
वरना आज भी बहुतों को प्यास है उस एक ठंडी सी लहर के जरिये खुद को भिगो देने की ....    
  

       

Wednesday, 20 June 2012

उम्मीद...


सुबह की पहली किरण के मेरे कक्ष में पदार्पण के साथ ही उदय होता है 
मेरी उम्मीदों का सूरज भी मेरे मन के किसी कोने में कहीं 
उस पर दूर मंदिर से आती शंख नाद और मंत्र उच्चारण की सुमधुर ध्वनि
जिन्हें सुनते ही ही मेरे कदम स्वतः ही चल पड़ते है 
एक आस और उम्मीद का दामन थामे उस मंदिर की ओर 
कि शायद आज कोई चमत्कार हो जाये  
शायद आज मेरी तुम से मुलाक़ात हो जाये
मगर यूं कहाँ होते हैं चमत्कार किसी के साथ जो मेरे साथ होंगे
मगर यह मन है कि उम्मीद का दामन छोड़ता ही नहीं 
कि अब तो उस ईश्वर के सामने भी 
तुम से मिलवाने कि मन्नते करते-करते थक चुका है मेरा मन,
अब तो उस परम पिता परमेश्वर से भी 
पिया मिलन की आस को कहने में मुझे शर्म से आने लगी है
कहाँ हो तुम ?
हर रोज़ बस एक यही प्रश्न मन में लिए 
बोझल कदमों से चलकर लौटकर चली आती हूँ मैं अपने घर,
जो अभी घर बना नहीं, अभी तो बस मकान ही है
क्यूंकि घर शब्द में तो जैसे आत्मा बस्ती है 
और मकान एक बेजान मृत शरीर सा सुनाई देता है 
इसलिए शायद उसे भी मेरी तरह इंतज़ार है
नहीं उम्मीद है शायद  
एक दिन मकान से घर बन जाने का ....        

Wednesday, 13 June 2012

इश्क़ बनाम दिमाग का लोचा ...

कितना कुछ छुपा है न इस एक शब्द में, नहीं ? कहने को नफरत को भी प्यार से जीता जा सकता है इसलिए शायद यह कहावत बनी होगी कि, "प्यार और जंग में सब जाएज़ है" अर्थात जब कोई इंसान प्यार में होता है, तो वो सही या गलत नहीं होता सिर्फ प्यार होता है मगर कमाल की बात तो यह है कि एक तरफ जहां उपरोक्त कहवात का प्रयोग किया जाता है वहीं दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, कि प्यार हमेशा उसे करो जो तुमको प्यार करे न कि उससे जिसे तुम प्यार करो,..तो कहीं कुछ लोग यह भी कहते हैं की "ज़िंदगी में हर इंसान को एक बार प्यार ज़रूर करना चाहिए क्यूंकि प्यार इंसान को बहुत अच्छा बना देता है" अर्थात बेचारा कोई इंसान यदि गलती से भी इन सब कहावतों पर ध्यान देकर प्यार करना चाहे तो वो कभी प्यार कर ही नहीं सकता।  पूछिये क्यूँ ? :-)अरे भई सीधी सी बात है दिमाग जो घूम जायेगा बेचारे का....और क्या करे ,क्या ना करे की भूल भुलाइयाँ में भटकते-भटकते उसकी पूरी उम्र गुज़र जाएगी। मगर वह बेचारा चाह कर भी कभी किसी से प्यार ना कर पाएगा। मगर जब कोई इंसान प्यार में होता है, तो उसे समझ ही कहाँ आता है, क्या सही क्या गलत उसे तो कभी उत्तर सही लगता है, तो कभी दक्षिण, कभी पूरब सही लगता है, तो कभी पश्चिम कभी-कभी तो यह सारी दिशाएँ ही एक साथ गलत नज़र आने लगती है ,बड़ा लोचा है भई कसम से....न दिल काम करता है, न दिमाग, यह समझना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सही क्या गलत पता है....ऐसे में ना !!! दिल से एक आवाज़ आती है।  
"एक मासूम सी नाव है ज़िंदगी, जो माझी की आँखों में झांक कर किनार ढूँढने की कोशिश किया करती है" 
मगर अफसोस कि उस नाव को कभी किनारा नहीं मिलता और लोग कहते हैं..... 
"हर किसी को मुकम्बल जहां नहीं मिलता 
किसी को ज़मीन ,तो किसी को आसमा नहीं मिलता"
ऐसे हालातों के चलते कभी लगता है और के लिए जीते हुए तो आधी ज़िंदगी गुज़र गयी तो क्यूँ ना अब दो पल ज़िंदगी के अपने लिए भी जी लिए जाए मगर उन दो पलों को जी भर जी लेने के बाद भी..... मन में कहीं एक कांटा सा अटक जाता है और उन गुजरे हुए लम्हों के प्रति मन में एक ग्लानि का भाव आजाता है, जैसे नींद से जागकर हकीकत से समाना होने पर महसूस होता है ना ... कुछ वैसा ही। उस वक्त, अपने प्यार में गुजरे उन हसीन लम्हों को लेकर ही इंसान खुद को अपराध बोध से ग्रसित पाता है क्यूँ ? कहते है प्यार की आखिरी मंज़िल प्यार को पा लेना होता है। मगर अपने प्यार को पा लेने के बाद भी, प्यार करने वाले सभी लोगों के मन में अपने ही परिवार के लोगों के प्रति एक ग्लानि क्यूँ रहा करती है क्यूँ ? उस वक्त अपनो के द्वारा मिल रहे निश्चल प्रेम और विश्वास के प्रति रह-रह कर यह खयाल आता है कि हम उस प्यार और विश्वास के काबिल नहीं फिर चाहे उनकी प्रेम कहानी सफल हुई हो या विफल कभी दिल गाता है "यह इश्क हाय बैठे-बिठाये जनत दिखाये हाँ हो रामा"....तो दूजे ही पल दिल से आवाज आने लगती "रहने दो छोड़ो भी जाने दो यार हम न करेंगे प्यार" .... सब कुछ इतना  कॉन्फ्युजनिंग सा हो जाता है कि दिमाग का लोचा हो जाता है कोई यह बताए कि भई आखिर यह प्यार इतना कोंपलीकेटेड क्यूँ होता है ....