मेरी उम्मीदों का सूरज भी मेरे मन के किसी कोने में कहीं
उस पर दूर मंदिर से आती शंख नाद और मंत्र उच्चारण की सुमधुर ध्वनि
जिन्हें सुनते ही ही मेरे कदम स्वतः ही चल पड़ते है
एक आस और उम्मीद का दामन थामे उस मंदिर की ओर
कि शायद आज कोई चमत्कार हो जाये
शायद आज मेरी तुम से मुलाक़ात हो जाये
मगर यूं कहाँ होते हैं चमत्कार किसी के साथ जो मेरे साथ होंगे
मगर यह मन है कि उम्मीद का दामन छोड़ता ही नहीं
मगर यूं कहाँ होते हैं चमत्कार किसी के साथ जो मेरे साथ होंगे
मगर यह मन है कि उम्मीद का दामन छोड़ता ही नहीं
कि अब तो उस ईश्वर के सामने भी
तुम से मिलवाने कि मन्नते करते-करते थक चुका है मेरा मन,
अब तो उस परम पिता परमेश्वर से भी
पिया मिलन की आस को कहने में मुझे शर्म से आने लगी है
कहाँ हो तुम ?
हर रोज़ बस एक यही प्रश्न मन में लिए
बोझल कदमों से चलकर लौटकर चली आती हूँ मैं अपने घर,
जो अभी घर बना नहीं, अभी तो बस मकान ही है
क्यूंकि घर शब्द में तो जैसे आत्मा बस्ती है
और मकान एक बेजान मृत शरीर सा सुनाई देता है
इसलिए शायद उसे भी मेरी तरह इंतज़ार है
नहीं उम्मीद है शायद
नहीं उम्मीद है शायद
एक दिन मकान से घर बन जाने का ....
बोझल कदमों से चलकर लौटकर चली आती हूँ मैं अपने घर,
ReplyDeleteजो अभी घर बना नहीं, अभी तो बस मकान ही है
क्यूंकि घर शब्द में तो जैसे आत्मा बस्ती है
और मकान एक बेजान मृत शरीर सा सुनाई देता है
इसलिए शायद उसे भी मेरी तरह इंतज़ार है
नहीं नहीं उम्मीद
एक दिन मकान से घर बन जाने का ....
बहुत सुन्दर भाव बसे हैं कविता में....
बहुत अच्छी रचना
उम्मीद पे दुनिया कायम रहती है ... वो मकां घर जरूर बनेगा ...
ReplyDeleteयह ख्वाब सा लगता है आज के भौतिक युग में कि मकान घर सा हो जाए।
ReplyDeleteपहला प्रेम ही स्थायी होता है। कोई समझे बैठा है,कोई जाने कब समझेगा।
ReplyDeleteप्यार का पेंट पोत डालिए दीवारों पर...मकान खिल जाएगा....घर हो जाएगा....
ReplyDelete:-)
अनु
मकान घर सा हो जाएगा
ReplyDeleteतभी तो वह मुकाम पायेगा