कभी रुकती संभलती, कभी ज़रा सी ठहरती
तो कभी डूबती उबरती
कुछ यूं ही हवा सी बह रही है ज़िंदगी
न समय का पता है, न मंज़िल की कोई खबर
गुज़र गया जो कल जहन में आता नहीं
आज में जीने को जी चाहता है
फिर न जाने क्यूँ ? कैसे अचानक ही
आने वाले कल की चिंता सिर उठती है
फिर ज़रा देर को ज़िंदगी रुक सी जाती है
फिर दिल दिमाग को समझाता है कि आज ही कल को बनाता है
तो क्यूँ ना आज में ही जी लेने हम तुम यह पूरी ज़िंदगी
क्या पता! कल यह पल हो न हो...
जो आज साथ है,जो आज पास है, कल हो न हो
फिर दिमाग दिल की बात दौहरात है
फिर एक बार ज़िंदगी को समझाता है
और बस फिर बन जाती है "बहती हवा सी ज़िंदगी"
थमी रुकी ,थकी चली, तो कभी जली बुझी, मिटी बनी
बस यूँ ही सदियों से बहा करती है
बहती हवा सी ज़िंदगी....
(पल्लवी सक्सेना )