Friday, 30 March 2012

प्रकृति और साथ ज़िंदगी का ....


कभी सोचा है प्रकृति और इंसान के साथ के गहरे रहस्य को
जैसे एक ही सिक्के के दो पहलुओं सा साथ 
एक के बिना दूजा अधूरा
जैसे मन के भाव वैसा प्रकृति का स्वभाव  
क्यूंकि एक प्रकृति ही तो है 
जो इंसान के साथ सदा होती है
वो कहते हैं ना 
"ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी"    
कभी महसूस किया है तुमने प्रकृति को बात करते  
जब खुश होता है हमारा मन या उदास होता है 
तब अक्सर प्रकर्ति का ही तो हमेशा साथ होता है
कभी एक हमसफर का रूप तो कभी माँ का स्वरूप  
अक्सर बातें करते हैं तब यह नदिया, यह पहाड़, यह झरने 
वो नदी का किनारा, वो पेड़, वो फूल, वो पत्तियाँ भी कभी-कभी 
वो चाँद वो तारे ज्यों दोस्त हो हमारे फिर क्या यह धरती और क्या आकाशा 
सारी कायनात जैसे हमारों ही इशरों पर चल, देने लगती है हमारा ही साथ 
अक्सर प्यार में पागल मन गुंगनाने लगता है वो गीत 
पंछी ,बादल प्रेमी के पागल हम कौन है साथिया....
और मन कहता है याद नहीं भूल गया हो याद नहीं भूल गया 
और जब मन उदास होता है तो
जैसे यही खूबसूरत नज़ारे अचानक दिल की चुभन बन जाते है एक सुलगती हुई 
मन में दबी आग मगर संगीत तो संगीत ही होता है चाहे गम का हो, या खुशी का 
और उदास होने पर भी मन गाता है 
यह रात खुशनसीब है जो अपने चाँद को 
कलेजे से लगाए सो रही है यहाँ तो ग़म की सेज पर हमारी आरज़ू अकेली मुंह छुपाये रो रही है 
इंसानी मन और उसके मानोभाव तो आज तक खुद इंसान नहीं समझ सका है 
तो कोई और क्या समझेगा भला  
क्यूंकि जब भी की है कोशिश किसी ने 
इस राज़ को समझ पाने की 
तब तब पलटा है ज़िंदगी और प्रकृति दोनों ही ने 
मिलकर इंसानी ज़िंदगी की किताब का एक पन्ना
जिसे नए सिरे से लिखने और समझने के लिए  
 फिर एक बार हो इंसान प्रकृति और साथ ज़िंदगी का....    


Tuesday, 27 March 2012

अपना घर


जानते हो तुम्हारे घर से जाने के बाद 
मुझे घर कितना सुना और खाली-खाली सा लगने लगता है  
यूं तो मैं कहने को अक्सर कह दिया करती हूँ
 कि यही तो वो समय है मेरा 
जब सबके स्कूल ऑफिस जाने के बाद 
मैं दो घड़ी चैन से बैठकर चाय पी पाती हूँ 
और मन ही मन यह सोच लेती हूँ 
कि चलो अब सारा दिन केवल मेरा है मेरे लिए है 
चाहे जो मन करे करू, अब तो तुम्हारे घर वापस आने तक यहाँ मेरा ही एक क्षत्र राज है,
मगर यह सब कहने की बाते हैं वास्तविकता तो कुछ ओर ही है। 
वास्तव में घर वो स्थान है जहां यदि काम ढूँढने जाओ 
तो शायद एक पूरा दिन भी कम पड़ जाये 
और यदि न चाहो, तो कोई काम ही नहीं होता 
मगर यह सब मैं तुमसे कोई शिकायत करने के लिए नहीं कह रही हूँ 
बल्कि मुझे तो बहुत अच्छा लगता है 
यूं घर का काम करना 
और बाकी घर के सदस्यों कि तरह 
अपने इस घर कि भी देख भाल करना
जानते हो क्यूँ, क्यूंकि जब मैं तुमसे जुड़कर यहाँ आई थी ना  
तब इसी घर ने मेरे पाओं कि मिट्टी को अपने अंदर जजब करके 
मुझे सदा के लिए अपना बना लिया था अपना मान लिया था
तभी से एक अनदेखा अंजान
मगर जो अब बहुत ही जाना पहचाना सा रिश्ता सा बन गया है मेरा इस घर से 
यहाँ की दीवारों से, यहाँ रखी हर चीज़ से मेरा एक रिश्ता सा बना हुआ है  
 यहाँ कि हर चीज़ मुझसे बातें किया करती है 
अपनी भावनाओ को मेरे साथ सांझा किया करती है
और उन सब से यूं बाते करते कराते 
कब शाम ढाल जाती है और तुम्हारे घर वापस लौटने का समय हो जाता है 
पता ही नहीं चलता जानते हो क्यूँ, क्यूंकि      
अपना घर अपना ही होता है 
चाहे महल हो या फिर छोटे से घर की चार दीवारी  
यहाँ तक की झोपड़ी ही क्यूँ ना हो अपना घर अपना ही होता है, 
चाहे जहां भी रहलो 
अपने घर का सा सुकून, शांति या आराम किसी को कहीं और मिल ही नहीं सकता 
फिर चाहे कोई भी जगह कितनी भी सुंदर हो या 
फिर कितने भी ऐश और आराम की वस्तुओं से ही क्यूँ न भरी पड़ी हो,
किन्तु तब भी जो सुख और सुरक्षित होने की भावना 
का आभास जैसा अपने घर की चार दीवारी में 
प्रवेश करने के बाद मिलता है 
मेरा दावा है, वो सुख किसी को भी और कहीं मिल ही नहीं सकता 
पर क्या खुद कभी महसूस की है एक बात तुमने  
या फिर सोचा है क्या कभी
यूं तो कहने को पूरा घर ही अपना होता है 
लेकिन तब भी हर घर के कोने में, 
कोई न कोई एक ऐसी जगह भी ज़रूर होती है 
जहां मन एक असीम शांति और अपने पन का अनुभव करता है, 
जहां वक्त के ठहराव को महसूस किया जा सकता है 
जो अपने घर के अलावा पूरी दुनिया में और कहीं मिल पाना संभव नहीं, 
वो जगह किसी भी व्यक्ति के लिए, उसके घर में बनी कोई भी जगह हो सकती है 
जैसे किसी के लिए पूजा घर, तो किसी के लिए महज़ कोई खिड़की,
 कोई बालकनी,बागीचा, छत या फिर आपका अपना कमरा 
या किचन घर की कोई भी जगह हो सकती है वो   
जहां आप अपने आप से बात करते हैं
वह एक स्थान अपने आप में आपके लिए बहुत खास होता है,
जहां ज़िंदगी की उलझनों और मन में चल रहे 
किसी भी प्रकार के विचारों को आप अपने आप से बांटते है,
फिर चाहे वो, आपके अंदर चल रहा किसी प्रकार का अंतर द्वंद हो,
किसी बात का दुख हो, कोई समस्या ही ,परेशानी हो 
या फिर चाहे कोई बेहद खुशी की बात ही क्यूँ ना हो
मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
अपने इस घर की हर एक चीज़ से बाते करना   
यूं ही कभी बागीचे में या घर के आँगन में टहलते-टहलते 
पेड़ पौधों से बाते करना या उनसे अपने मन की बातों को कहना,
 कभी-कभी खिड़की में घंटों खड़े रहकर 
बाहर के नज़रों को देखते हुए अपने आपसे बाते करना 
कभी-कभी तो यूं भी होता है की अपने कमरे में किसी एक जगह बैठकर 
तकिये को हाथों में लिए घंटो मन ही मन कुछ सोचते रहना 
अपने आप खुद से ही सवाल भी पूछना और खुद ही जवाब भी देना 
या फिर छत की मुडेर पर खड़े होकर वहाँ लगे गमलों से बाते करना
प्रकृति के साथ अपनी बातों को अनुभवों को अहसासों को बटना 
अपने आप में एक ऐसा सुकून देता है 
जिसका कोई पर्याय नहीं
वाकई ऐसा महसूस होने लगता है 
जैसे सच मुछ कुदरत आपकी बातें सुन रही हो
और आपसे वो कह रही हो जो आप और से सुने की आपेक्षा रखते हो 
मगर कभी सुन नहीं पाते उस वक्त प्रकृति एक ऐसे दोस्त के रूप में सामने होती है 
जो आपकी हर बात सुनने समझने को तैयार है बिना किसी शर्त के 
बिना किसी शिकायत के जो हर नज़रिये से आपके साथ है
यदि आप खुश हो तो वो खुश है और यदि आप दुखी हो तो दुखी भी है 
बस यह सब देखने की नज़र चाहिए     
कुछ लोग अपने घर की साफ सफाई के दौरान भी लगभग घर 
की हर एक वस्तु से बातें करते हुए 
अपने मनोभावों को बाँट लिया करते है। 
यह सब सिर्फ ओर सिर्फ केवल अपने ही घर में संभव हो पाता है 
किसी और के घर में यह सुख कहाँ ,
इसलिए मुझे प्यार है अपने इस छोटे से मगर मेर इस अपने आशियाँने से
क्यूंकि कुछ बातें खामोशी के साथ ही और खामोशी के बाद भी बहुत अच्छी लगती है.....  






Friday, 23 March 2012

रिश्तों में नाम ज़रूरी है क्या ?


माना के रिश्ता था कभी हमारे बीच प्यार का मगर क्या सच में वो प्यार ही था 
या हम उसे प्यार समझ बैठे थे  
मगर आज ज़िंदगी के जिस मोड पर खड़े हम 
तुम ही बताओ क्या वो सच में प्यार था।  
दो अंजान लोग विचारों के माध्यम से मिले,मिलकर साथ चले 
विचारों के मिलन से ही नज़दीकियाँ बढ़ी तो क्या विचारों का मिलाप ही प्यार है ??? 
न.... मुझे तो नहीं लगता कि एक सी सोच और भावना का होना ही प्यार कहलाता है 
क्यूंकि ऐसे तो न जाने कितने लोग होंगे इस जहां में जिनसे मेरी तुम्हारी सोच मिलती होगी 
तो क्या हमे उन सब से प्यार हो जाएगा 
गर ऐसा होता तो शायद आज इस दुनिया का नक्शा ही कुछ ओर होता, !!!
नहीं, तुम्हें नहीं लगता ना ऐसा.....मैं जानती हूँ, तुम मन ही मन मुस्कुरा रहे हो, 
शायद हंस भी रहे हो सोच-सोच कर कि कैसे पागल लड़की है यह  
 कुछ भी सोचती है कुछ भी कहती है 
भला प्यार का सोच से क्या वासस्ता है ना !!! यही सोच रहे हो न तुम ? 
शायद तुम ही सही हो मुझे भी यही लगता है 
प्यार का सोच से कोई वास्ता हो ही नहीं सकता 
क्यूंकि प्यार तो उनके बीच में भी देखा है मैंने 
जिनकी सोच नदी के दो किनारों कि तरहा होती है ,
मगर तब भी प्यार सांस लेता है, उनकी रूह में कहीं न कहीं, 
तो फिर हमारे बीच जो कुछ था, वो प्यार था या जो आज है वो प्यार है 
हमारी सोच और भावनायें तो कल भी मिलती थी और आज भी मिलती है। 
मगर मैं इस रिश्ते को कोई नाम देना नहीं चाहती। न प्यार का और न ही दोस्ती का, 
जाने क्यूँ मैं आज तक समझ ही नहीं सकी कि लोग जब प्यार में बिछड़ जाते है, 
तो आगे जाकर वो इस रिश्ते को दोस्ती का नाम देकर क्यूँ चलाया करते है 
क्यूँकि प्यार दोस्ती में नहीं बदल सकता है। हाँ दोस्ती ज़रूर प्यार में बदल जाती है। 
इसलिए में अपने इस रिश्ते को इन नामों के माया जाल से बचाकर रखना चाहती हूँ। 
मेरी नज़र में हमारे बीच जो भी है वो ना तो प्यार है, न दोस्ती 
सिर्फ विचारों और भावनाओं का रिश्ता है हमारा 
तो क्या ज़रूरी है इसे कोई न कोई नाम दिया ही जाये 
क्या बिना किसी रिश्ते का नाम दिये, दो लोग आपस में अपने सुख दुख नहीं बाँट सकते।
क्या ज़रूर है दो इन्सानों के बीच बने आपसी समझ के रिश्ते को कोई नाम देना 
क्या बिना किसी रिश्ते कि मोहौर लगे दो 
इन्सानों को उनकी आपसी समझ के बल पर जो कि हर रिश्ते कि नीव होती है  
उन्हे जीने का अधिकार नहीं दिया जा सकता
यूं भी मकान बन जाने के बाद तो लोग सिर्फ मकान को देखते है 
क्यूंकि नीव को कोई नहीं नाम नहीं होता
तो फिर रिश्तों में नाम क्यूँ ....         

Wednesday, 21 March 2012

है कोई जवाब ?


कहते हैं खुशी बांटने से बढ़ती है और ग़म बाटने से घटता है
यह भी कहा जाता है कि अति हर चीज़ कि बुरी होती है
फिर चाहे वो प्यार ही क्यूँ न हो
कितना कुछ कहा जाता है न इस प्यार के बारे में
लेकिन यदि कभी यही प्यार बेवफाई कि वजह बन जाये तो,
तुम मुझे पूरी शिद्दत से चाहो और मैं तुम्हे धोखा दे जाऊन तो
तो क्या तब मुझे माफ कर सकोगे तुम क्यूंकि प्यार में तो कोई शर्त नहीं होती
प्यार तो नाम है त्याग का,प्यार में सिर्फ पाना प्यार नहीं होता
बल्कि प्यार में अपना सर्वस्व देदेना प्यार कहलाता है

जैसे की तुमने मुझे दिया
लेकिन यदि फिर भी बहक जाये मेरे कदम तो क्या माफ कर सकोगे तुम
नियति के खिलाफ जाकर मेरे साथ इंसाफ कर सकोगे तुम
यूं तो बिना किसी अपराध के अग्नि परीक्षा सदियों से सदा औरत ही देती आई है
लेकिन यदि आज में अपना अपराध मानकर, लूँ तुम्हारे प्यार की परीक्षा
तो क्या सब कुछ भुला कर मुझे माफ कर सकोगे तुम
यूं तो आज ज़माना बराबरी का है, मगर क्या तुम मेरा यह सच जानकर भी
मुझे वैसे ही चाह सकोगे जैसे कभी पहले चाहा था तुमने

मैं जानती हूँ कहना बहुत आसान होता है मगर निभा पाना उतना ही मुश्किल
क्यूंकि हो तो तुम भी आखिर एक इंसान ही कोई भगवान नहीं हो ,
तुम्हारे अंदर भी एक दिल है जो धड़कता है, दिमाग है, जो सोचता है जज़्बात हैं जो मचलते है
मगर क्या इन सब को परे रखकर केवल प्यार का दामन थाम
क्या तुम दे पाओगे मेरा साथ मेरे सच के साथ
क्या निभा पाओगे शादी के फेरों में दिया गया अपना वो वचन
कि हर पल हर स्थिति में तुम दोगे मेरा साथ,

शायद नहीं क्यूंकि दुनिया का हर पुरुष प्यार करना तो बहुत अच्छे से जानता है
मगर प्यार निभाना केवल स्त्रियॉं को आता है
यकीन न हो मेरी बात का यदि तो इतिहास उठाकर देखलों
प्यार में समझौता और सहनशीलता कि मूरत केवल स्त्री को ही कहा जाता है
मगर जब यही बात किसी पुरुष पर आती है तो मात्र एक धोबी के कहने भर से
एक पतिवृता स्त्री को घर से बेघर कर दिया जाता है जंगलों में भटकने के लिए
आखिर कब तक कृष्ण बहलाते रहेगे यह कहकर राधा का मन
कि मैं इसलिए विवाह किया रुक्मणी से प्रिय
क्यूंकि विवाह में दो लोगों कि जरूरत होती है, और हम तो एक ही है ना

आखिर क्यूँ और कब तक चलेगा
यह प्यार में समर्पण, सहनशीलता, और त्याग का यह एक तरफा खेल
अरे वह तो फिर भी भगवान थे, रही होगी उनकी कोई मजबूरी
जिसके चलते उठाना पड़े होंगे उनको यह कदम शायद...मगर मैं तो इंसान हूँ,
और इस नाते मुझे शिकायत है सदियों से चले आरहे इस एक तरफा खेल से
मानती हूँ भूल मेरी है गुनहगार भी मैं ही हूँ मगर तभी प्यार है मुझे तुमसे
अब तुम्हारी बारी है जवाब तुमको देना है।
क्या अब भी मेरे सच के साथ तुम्हें कुबूल है मेरा प्यार

रही बात मेरी तो मेरे दिल के अंदर बने तुमसे कि गई बेवफाई
के जख्मो से खून का रिसना तो बादस्तूर अब भी जारी है
भले ही वो एक भूल थी मेरी,जिसके चलते
भावनाओं ने ही भावनाओं के तूफानों में झोंक दिया मेरा अस्तित्व को  
मगर मुझे तुम से प्यार तब भी था और अब भी है
इसलिए शायद कदम बढ़ना तो चाहते है मेरे, मगर बढ़ नहीं पा रहे,

जाने क्यूँ अंजाने में ही सही जख्म भी मैंने ही दिया है तुमको,
मगर तब भी दर्द मुझे ही हो रहा है
फिर भी ना जाने मुझे ऐसा क्यूँ लगता है, कि मैं मर चुकी हूं
मगर मुरदों को तो दर्द नहीं हुआ करता न फिर मुझे क्यूँ हो रहा है
क्यूंकि शायद यूं तो मेरी आत्मा मर ही चुकी है
मगर उसी आत्मा कि शांति के लिए शरीर का मिट्टी में मिलना अभी शेष है......  

Sunday, 18 March 2012

जीवन क्या है ? जीवन या एक पहेली....


 एक बेहतरीन लेखिका के एक ब्लॉग को पढ़कर मेरे मन में उठे कुछ विचार 

गहराइयों मे जाकर भी सोचा है कभी कि यह जीवन क्या है ? समझ ही नहीं आता कि जीवन क्या है एक पहेली या एक हकीकत, जिसे समझते सुलझाते ही इंसान की तमाम उम्र गुज़र जाती है। मगर ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव तक समझ नहीं आता कि यह जीवन आखिर था क्या? शून्य में निहारते हुए इंसान को अकेले में अक्सर कुछ प्रश्न आ घेरते है जैसे हम क्या चाहते हैं, क्यों चाहते हैं...जीवन हमें कैसा चाहिए जैसे सवाल। यूं तो हर इंसान दौहरी ज़िंदगी जिया करता है। हमेशा दो मुखौटों के साथ एक वो जो समाज और दुनिया को दिखाने के लिए होता है और एक वो जो खुद के लिए सच्चाई के आईने से कम नहीं होता। समाज और दुनिया के लिए लगाया गया मुखौटा अक्सर हम सभी रोज़ ही सुबह से अपने चहरे पर लगा लिया करते है, एक औपचारिकता भरी मुस्कान और जीवन के दो औपचारिक शब्द माफ़ करना और धन्यवाद के साथ और जब रात को अकेले में दिन भर की भागदौड़ के बाद जैसे ही सुकून के कुछ पल मिला करते है, तन्हाइयों के साथ तब अपने आप ही उतर जाता है,यह दिन भर से चढ़ा दिखावे का मुखौटा जैसे हटा हो कोई नकाब किसी अजनबी के चेहरे से,

तो तब अक्सर मन करता है निकल जाने को एक ऐसी सुनसान राह पर जहां तेज रोशनी उगलते ख़ाबों के बीच से गुज़रता कोई अपने आप सा खाली सा रास्ता तालाशता हुआ मन जहां हवा की सरसराहट से यहाँ वहाँ उड़ते सूखे पत्ते और बेवजह इक्का दुक्का निकलती गाडियाँ जिन्हें देखकर ऐसा महसूस होता है जैसे इनमें बैठे लोग भी बस भागे चले जारहे हैं अपनी दिन बार की ऊब को ख़त्म करने के लिए और उस अनदेखी अनजानी मंज़िल की तलाश में जिसका सफर है यह ज़िंदगी, ऐसे में जब हम दूर कहीं कोई पार्क में या बागीचे में ऐसे ही एक अधजले से टिमटिमाते बिजली के खंबे के नीचे पड़ी किसी बेंच पर जाकर झींगुरों और मच्छरों के शोर तले कुछ देर बैठे हुए जब अपने आप से मिलते हैं तब अकसर किसी एक पल का कोई टुकड़ा हमारा हाथ पकड़ के हमको ख्यालों की उस दूसरी दुनिया में लेजाता है और हम उसमें गुम हो जाते हैं। जहां हम तन्हा होकर भी खुद को कभी तन्हा महसूस नहीं किया करते और तभी अचानक जैसे  कहीं से कोई आवाज का सूरज उगता है यह कहते हुए कि इतनी रात गए यहाँ क्या कर रहे हो, चलो जाओ अपने घर और हम उस आवाज के साथ उन ख्यालों की दुनिया से बाहर आजाते हैं । तब अक्सर घर लौटे वक्त दिमाग में फिर एक खयाल दस्तक देता है।

एक दुनिया हमारे अंदर भी है, जो बिकुल बाहरी दुनिया की तरह है। जहां रास्ते भी हैं, मंज़िले भी, जहां पहाड़ भी है,नदियाँ भी,जहां मौसम के रूप में बहार भी है, तो पतझड़ भी, प्यार भी है, तो नफरत भी, वो सब कुछ है जो हमें बाहर दिखाता है। जबकि दरअसल वह सब हमारे अंदर ही होता है। इन्हीं सब ख़यालों के बीच चलते हुए रात का अंचल पसरता जाता है और उस बागीचे से घर को लौटता वह रास्ता जिस पर चलकर हम खुद से मिलने गए थे छोटा होता चला जाता है और अंत में हम फिर वहीं आखड़े होते हैं जहां से चले थे कभी....शायद किसी ने ठीक ही कहा है "दुनिया गोल है"। लेकिन इन सब के बीच एक बात तो तय है, कि किसी भी इंसान को अकेले होने के लिए किसी सुनसान बियाबान जगह पर जाने की कोई जरूरत नहीं होती। हम इंसानों से, रिश्ते नातों से, भरे जंगल में भी अकेले हो सकते हैं। कभी भी, कहीं भी...जैसे वो गीतहै ना
"हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी 
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी"

सोचते-सोचते लगता है उफ़्फ़ कितनी उलझन भरी है यह ज़िंदगी जिसका सफर है मगर मंज़िल कोई नहीं, शायद मंज़िल नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं, सिर्फ सफर ही हुआ करता है। हाँ जब भी ऐसा लगता है, कि  हमको हमारी मंज़िल मिल गई, किन्तु तब वास्तव में वो मंज़िल नहीं जीवन के सफर का एक पड़ाव होता है।  जहां हम कुछ देर रुकते है और यह गुमान हो जाता है। कि यही तो है हमारी मंज़िल, मगर फिर थोड़े ही दिनों में यह अहसास भी हो जाता है, कि अभी कहाँ अभी तो दिल्ली बहुत दूर है। अभी तो बहुत कुछ है जीवन में जिसे अभी पाना है। अभी हम रुक नहीं सकते अभी तो बस चलते ही चले जाना है और हम फिर निकल पड़ते हैं उस अनजानी सी अनदेखी मंज़िल की ओर जीवन के इस पथ पर चलते-चलते कुछ हमसफर मिलते हैं ऐसा आभास सा होता है, लेकिन उनके बिछड़ते ही हम और अकेले हो जाते हैं। यानी शाश्वत है अकेला होना ही। तो क्यूँ न यह जीवन भी अकेले ही जिया जाये। क्या जरूरत है किसी के साथ की, यूं भी तो अब तक का सफर हमने अकेले ही तय किया है। क्यूंकि हमसफर भले साथ हो आपके मगर उसके बावजूद भी आपकी अपनी एक अलग दुनिया होती है जहां सिर्फ और सिर्फ आप होते हैं। आपके अंदर कि दुनिया बिना मुखौटे की दुनिया,जहां आप खुद से मिला करते हैं।  

तब कभी महसूस किया है, किसी नदी के किनारे बने 
किसी मरघट के दृश्य को
कहीं किसी के स्मृतिचिन्ह किसी पत्थर के रूप में दर्जहोते हैं 
तो कहीं थोड़ी थोड़ी दूरी पर आग भी होती है।   
जीवन भर की थकी हुई देहों को विश्राम देती आग. 
कहीं आग बस बुझने को हुआ करती है 
तो कहीं धू-धूकर जल रही होती है।   
तो कहीं मंथर गति से जल रही होती है  
मानो अपनी ही गति पर मुग्ध हो.
हर एक आग का अपना एक अलग ही दृश्य नज़र आता है
मगर उन चिताओं का भी 
अंत समय आनेतक वहाँ कोई नहीं रुकता
और रहजाता है वहाँ भी फिर एक बार वही अकेलापन.....
प्रतिभा कटियार 

यह जीवन का कैसा सत्य है। जहां इंसान का रिश्ता केवल उसकी साँसों पर टीका होता है। जहां साँसे ख़त्म वहाँ सब कुछ जैसे अचानक से कहीं विलीन हो जाता है। सासों के रुकते ही शरीर अपवित्र हो जाता है। अपने ही घर में अपनी ही लाश छूत पाक का करण बन जाती है और जल्द से जल्द उसे अग्नि के सुपुद्र करने कि कोशिशें शुरू हो जाती है और शायद तब उस अग्नि में आहुति हम खुद ही रूह रूप में दूर खड़े हो देदीया करते हैं। अपने अंदर उन बरसों से चल रहे प्रश्नो को, कि हम कौन है, हमारी मंज़िल क्या है कोई मंज़िल भी है या यह सफर ही है बस जो न रुकता है न थमता है बस केवल चला करता है। क्या पता इन जलती हुई चिताओं में इन सवालों कि आहुतियों के बाद भी इंसान को सुकून मिल भी पाता है या नहीं, इस अतिम सफर के बाद भी यह जीवन पहली सुलझ भी पाती है या नहीं ????              

Tuesday, 6 March 2012

ज़िंदगी के रंग...

कुछ भी शुरू करने से पहले आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें दोस्तों 

होली के रंग अपनों के संग
बस रंग ही रंग कभी सोचा है 
अगर ज़िंदगी में यह रंग 
न होते तो कितनी 
उदास निराश और फीकी सी लगती यह ज़िंदगी 
सच सभी तरह के रंगों का भी बहुत महत्व होता है 
इस एक ज़िंदगी में 
फिर चाहे वो होली के रंग हों 
या ज़िंदगी में हुए अनुभवों के रंग 
रंग तो रंग ही है
जीवन के रंग 
कभी खुशी कभी ग़म 
कुछ रंग ज़िंदगी में स्वतः ही बिखर
हमारी ज़िंदगी को रंगीन बना जाते है
जैसे सच्चे प्यार क्या कोई ठहरा हुआ सागर जो छलके
पर न बिखरे यही तो चाहता है हर दिल    
मगर कुछ रंग ऐसी भी होते है 
जो ना चाहते हुए भी हमारी ज़िंदगी में 
 भर दिये जाते हैं 
जैसे यह ज़िंदगी नहीं, किसी चित्रकार 
की कोई चित्रकारी हो 
और 
उसमें कोई रंग कम पड़ जाये तो 
 वो चित्रकार वहाँ काम चलाने के लिए 
जबरन ही किसी और रंग को भर दिया करता हो
ज़िंदगी भी तो एक चित्रकारी की तरह ही है 
जिसमें शायद चित्र तो हम बनाते है 
मगर उन चित्रों में रंग कोई और भरा करता है .....