कभी सोचा है प्रकृति और इंसान के साथ के गहरे रहस्य को
जैसे एक ही सिक्के के दो पहलुओं सा साथ
एक के बिना दूजा अधूरा
जैसे मन के भाव वैसा प्रकृति का स्वभाव
क्यूंकि एक प्रकृति ही तो है
जो इंसान के साथ सदा होती है
वो कहते हैं ना
"ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी"
कभी महसूस किया है तुमने प्रकृति को बात करते
जब खुश होता है हमारा मन या उदास होता है
तब अक्सर प्रकर्ति का ही तो हमेशा साथ होता है
कभी एक हमसफर का रूप तो कभी माँ का स्वरूप
अक्सर बातें करते हैं तब यह नदिया, यह पहाड़, यह झरने
वो नदी का किनारा, वो पेड़, वो फूल, वो पत्तियाँ भी कभी-कभी
वो चाँद वो तारे ज्यों दोस्त हो हमारे फिर क्या यह धरती और क्या आकाशा
सारी कायनात जैसे हमारों ही इशरों पर चल, देने लगती है हमारा ही साथ
अक्सर प्यार में पागल मन गुंगनाने लगता है वो गीत
पंछी ,बादल प्रेमी के पागल हम कौन है साथिया....
और मन कहता है याद नहीं भूल गया हो याद नहीं भूल गया
और जब मन उदास होता है तो
जैसे यही खूबसूरत नज़ारे अचानक दिल की चुभन बन जाते है एक सुलगती हुई
मन में दबी आग मगर संगीत तो संगीत ही होता है चाहे गम का हो, या खुशी का
और उदास होने पर भी मन गाता है
यह रात खुशनसीब है जो अपने चाँद को
कलेजे से लगाए सो रही है यहाँ तो ग़म की सेज पर हमारी आरज़ू अकेली मुंह छुपाये रो रही है
इंसानी मन और उसके मानोभाव तो आज तक खुद इंसान नहीं समझ सका है
तो कोई और क्या समझेगा भला
क्यूंकि जब भी की है कोशिश किसी ने
इस राज़ को समझ पाने की
तब तब पलटा है ज़िंदगी और प्रकृति दोनों ही ने
मिलकर इंसानी ज़िंदगी की किताब का एक पन्ना
जिसे नए सिरे से लिखने और समझने के लिए
फिर एक बार हो इंसान प्रकृति और साथ ज़िंदगी का....