ज़िंदगी एक ऐसा शब्द जिसके हर नज़र में एक अलग ही मायने है
कोई कहता है ज़िंदगी एक किताब है
तो कोई कहता है बारिश का पानी
कोई कहता है आग का दरिया
तो कोई कहता है सागर का पानी
कोई सागर की लहरें तो कोई तेरी मेरी कहानी
जैसे इस ज़िंदगी को देखने के लिए
परखने के लिए जितनी आँखें उतने ही दृष्टिकोण
मगर आज तक कोई न समझ सका है
इस ज़िंदगी का फलसफा
आखिर यह ज़िंदगी है क्या एक सवाल ?
जिसके न जाने कितने जवाब
मुझे लगता है ज़िंदगी एक मकान की तरह है
जिसमें आतित की यादों के कई सारे झरोखे हैं
किसी भी एक खिड़की या झरोखे में खड़े होकर देख लो
एक अलग ही दुनिया नज़र आती है
कभी उस दुनिया में लौट जाने को मन करता है
तो कभी-कभी उस ही खिड़की के दरवाजे
हमेशा के लिए बंद कर देने को भी मन करता है
कभी यूं भी होता है कि
उसी झरोखे के बंद किवाड़ के नीचे से बहती हुई हवा सी
कोई मीठी सी याद छुपके से आकर आपके होंठों पर
एक मोहक सी मुस्कान बिखेर जाती है
तब अक्सर उस मोहक सी यादों के बीच हम सुन
नहीं पाते उस ज़िंदगीनुमा मकान के दरवाजे के बाहर दस्तक देती
भविष्यवाणियाँ को ,
जो उस वक्त निर्धारित कर रही होती है हमारा भविष्य
तो कभी यूं भी होता है कि उस ज़िंदगी के मकान के बाहर ही
उमड़ रहे होते है कुछ अंधड़ जिनकी आवाज़
हमें झँझोड़ कर वर्तमान में ला खड़ा करती है
लेकिन तब भी वो हिला नहीं पाती उस ज़िंदगी के मकान को कभी
जिसकी नींव होती है खुद ज़िंदगी
उम्मीद, आस्था और विश्वास
जिसके आधार पर खड़ा होता है
एक नहीं कई ज़िंदगीयों का एक मकान.....