Wednesday, 27 August 2014

माँ के मन की व्यथा...


वर्तमान हालातों को मद्दे नज़र रखते हुए जब मैंने मेरी ही एक सहेली से फोन पर बात की और तब जब उसने यह कहा कि यार चिंता और फिक्र क्या होती है यह आज समझ आरहा है मुझे...जब हम बच्चे थे तब तो हमेशा यही लगता था कि माँ नाहक ही इतना चिंता करती है मेरी, सिर्फ इसलिए क्यूंकि मैं एक लड़की हूँ। मगर आज जब खुद मेरे एक बेटी है। तो समझ आता है कि क्यूँ किया करती थी माँ मेरी इतनी चिंता। बस उसी आपसी बातचीत से मन में उभरे कुछ विचार...


एक बेटी से बहन, बहन से वधू और वधू से माँ बनने तक के सफर में
कितना कुछ अनुभव कराया है इस वक्त ने मुझे 
हर कदम पर, एक नया रिश्ता 
रोज़ कोई नयी चुनौती या त्याग लिया आता है। 
जीवन के इन अनुभवों से झुझते हुए कई बार बहुत कुछ सोचा है मैंने, 
बहुत कुछ सीखा है मैंने, 
मैं कौन ?
 मैं एक स्त्री 
बहुत ही साधारण सी, एक आम सी स्त्री 
एक आम इंसान, 
एक ऐसी इंसान जिसे कभी किसी युग में इंसान समझा ही नहीं गया 
जिसने समझा केवल एक वस्तु ही समझा 
जब जिसकी जैसी इच्छा हुई 
तब उसने इस वस्तु का वैसा ही इस्तमाल किया।
 कभी सीता बनाकर दर दर की ठोकरें खाने भेज दिया, 
तो कभी द्रोपदी बनाकर दाव पर लगा दिया, 
भरी सभा में अपमानित होने के लिए 
तब से आज तक 
सबने मुझे एक भोग की वस्तु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझा 
कभी किसी ने मेरा मन पढ़ने की चेष्टा नहीं की
 सभी ने देखा तो केवल तन देखा 
कभी गरीब के घर जन्मी 
तो परिवार चलाने के लिए मैंने खुद अपना तन बेंचा  
मगर अपनी आत्मा नहीं बेची कभी 
 अमीर के घर जन्मी तो,
 दहेज की आग में जलायी गयी 
और 
एक सामान्य परिवार में जन्म लेने पर भी 
कभी मुझे अपनों ने छला 
तो कभी बाहर घूम रहे, इंसान की खाल में छिपे भेड़ियों ने 
कुछ इस तरह देखा उन्होंने मुझे 
कि देखने मात्र से ही लज्जित हो गई मैं, 
यूं जैसे किसी भूखे के सामने पड़ा हुआ भोजन 
 हर रोज़ खड़े होते है 
हर गली, हर नुक्कड़ पर कुछ इंसान से दिखने वाले यह भेड़िये 
मौके की तलाश में, नौचने को मेरा तन 
तब मन ही मन करती हूँ मैं रोज़ ही एक निश्चय
हर रोज़ लेती हूँ एक प्रण  
कि अपनी संतान को न दूँगी मैं यह भय 
निडर बनाऊँगी मैं उसे, 
इतना निडर कि नौच सके वो आंखे 
उन वासना में लिप्त भूखे भेड़ियों की 
जिन्हें सदा औरत में केवल शरीर ही दिखाई देता है 
इंसान नहीं
मगर जब माँ का ह्रदय देखता है 
 हर स्त्री के प्रति होता घिनौना व्यवहार 
तो हार देता है वह अपना होंसला 
और सोचता है 
मैं एक स्त्री, मुझे तो वादा करने 
या स्वयं अपने लिए कोई निश्चय करने का भी अधिकार नहीं है यहाँ 
फिर भला मैं कैसे दे पाऊँगी 
तुझे मेरे मन की कली
एक सभ्य और सुरक्षित समाज का आँगन 
तुझे एक महकता हुआ फूल बनने के लिए ...          

   

Saturday, 22 February 2014

प्रेम

प्रेम क्या है ! इस बात का शायद किसी के पास कोई जवाब नहीं है। क्योंकि प्रेम की कोई निश्चित परिभाषा भी तो नहीं है। प्रकृति के कण–कण में प्रेम है। साँझ का सूरज से प्रेम, धरती का अंबर से प्रेम, पेड़ का अपनी जड़ों से प्रेम, जहां देखो बस प्रेम ही प्रेम। प्रेम एक शाश्वत सत्य है।
प्रभु की भक्ति भी भक्त का प्रेम है। देश भक्ति भी प्रेम है। मानवीय रिश्तों में प्रेम है। हवाओं में प्रेम है नज़ारों में प्रेम है। मौसम में भी तो है प्रेम। वसंत ऋतु से लेकर फागुन तक केवल प्रेम ही प्रेम तो है। राधा और कृष्ण का प्रेम। गोपियों और कान्हा का प्रेम फिर समझ नहीं आता जब चारों और केवल प्रेम ही प्रेम है।
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तो फिर यह घृणा कहाँ से आई।
यह ईर्ष्या कब कहाँ और कैसे समाज पर छायी।
प्रभु ने तो यह दुनिया प्रेममयी खीर ही बनाई।
फिर क्यूँ हमने इसमें घोल दी अपने स्वार्थ की खटाई।
जो नित नए दिन के साथ जीवन में घुल मिलकर बहता जाता है
बन नदी की पावन धार।
क्यूँ उसी प्रेम को बाँध दिया हमने,
देकर नाम कटार(समाज) 
जहां जन्में केवल जाती, धर्म, फसाद।
ना रही भक्ति न रही शक्ति
हावी हो गया ढोंग व्यापार।
जिसके चलते नष्ट हो गया विश्वास का कारोबार।
लिये घूमता है अब हर कोई 
लेकर स्वार्थ कटार।
बगुले की भांति अब सभी ताड़ में रहते है।
जब जिस को मिल जाए अवसर
वार करके ही दम लेते है।
तड़प देखकर मछली की अब
सब आनंद ही लेते हैं।
नेता हों या अभिनेता अब सब अभिनय ही करते हैं।
दया धर्म अब डूब मरने को चुल्लू भर पानी को तरसते हैं

Wednesday, 29 January 2014

बस यूँ ही...

अजीब दास्‍तान है ये कहां शुरू कहां खत्म
ये मंज़िलें हैं कौन सी न वो समझ सके न हम....

सच ज़िंदगी भी तो ऐसी ही है। ठीक इसी गीत की पंक्तियों की तरह एक कभी न समझ आनेवाली पहेली। एक लंबा किन्तु बहुत छोटा सा सफरजिसकी जाने कब साँझ ढल जाये, इसका पता ही नहीं चलता। न जाने कितने भावनात्मक रास्तों से गुज़रता है यह ज़िंदगी का कारवां, लेकिन अंतिम पड़ाव आते-आते तक हाथ फिर भी खाली ही रह जाते हैं और दिल एकदम भरा-भरा...खुद का दिमाग ही जैसे दुश्मन बन जाता है और बार-बार डांट-डांट कर बस यही कहता है कि क्या पाया तुमने इंसान होकर? अरे तुम से अच्छे तो ये पंछीनदियाँपवन के झोंके हैं। जानते हो क्यूँक्‍योंकि कोई सरहद न इन्हें रोके।

मगर तुम...तुम तो खुद अपनी ही बनाई हुई सरहदों में अटक कर रह गए। न आगे जा सके न पीछे हट सके। हमेशा तुमने बस अपने अहम को तुष्ट करने की ही सोची। कभी किसी के स्वाभिमान या मान-सम्मान के विषय में तो तुम सोच ही नहीं पाये। सोचते भी कैसे, इंसान जो ठहरे। लेकिन एक बात तो बताओ। आखिर इंसान है क्यागलतियों का एक पुतला, जो ज़िंदगीभर गलतियाँ कर-कर के ही सीखता है किन्तु फिर भी गलतियाँ करना नहीं भूलता।

कुछ महानुभव गलती छोड़ गुनाह कर बैठते हैं और कहते हैं इसमें भी मेरी गलती कहाँ है। क्योंकि इस दुनिया का कर्ताधर्ता तो वो ऊपरवाला है ना। कहते हैं उसकी मर्ज़ी के बिना तो एक पत्ता तक नहीं हिलता। यदि यही सच है तो फिर गुनहगारों से गुनाह करवानेवाला भी तो वही हुआ ना। लेकिन वो भी शायद इसी जुमले को सच मानता है कि करे कोई भरे कोई’ यानि कि इंसान से गुनाह करवाए वो ऊपरवाला और सज़ा भी वही दे। यानी यह तो वही बात हुई कि चित भी मेरी और पट भी मेरी और तू (इंसान) मेरे हाथ की कठपुतली। जिसे मैं जब चाहूँ, जहां चाहूँजैसे चाहूँ, अपने इशारों पर नचा सकता हूँ। अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक अपने मनोरंजन के लिए कुछ भी करवा सकता हूँ। फिर चाहे तुम उसे गलती का नाम दो या गुनाह का, पाप कहो या पुण्य तुम्हारी मर्ज़ी। मगर तुम सब अक्ल के अंधे करोगे वही जो मैं चाहूँगा।

खुद ही सोचो कितनी अजीब बात है ये कि जिस वस्तु को पाने के लिए तुम रात-दिन एक कर देते होजिस एक चीज़ को पाने के लिए मेरे सामने सदा रोते-बिलखते गिड़गिड़ाते रहते होयहाँ तक कि उस चीज़ को पाने के लिए तुम भिखारी तक बन जाने से भी ज़रा नहीं हिचकिचाते और जब मैं तुम पर दया करके तुम्हें तुम्हारी वही प्रिय वस्तु या चीज दे देता हूँ तो अगले ही पल तुम्हारे मन से उस चीज़ को पाने की खुशी यकायक जाने कहाँ लुप्त हो जाती है। यह देख कभी-कभी तो मैं स्वयं भी सोच में पड़ जाता हूँ कि यह मानव मन भी कैसा विचित्र है जिस प्राप्य की आकांक्षा में जमीन-आसमान एक किया जाता है, वही प्राप्त होने पर तुच्छ क्यूँ लगता है। अनदेखी की अनुभूति क्यूँ देता है। 

फिर मुझे याद आता है कि एक इंसान कभी संतुष्ट ही कहाँ होता है। एक मनोकामना पूर्ण होने से पहले ही दूसरी जो जन्म ले लेती है। इसलिए तो मैं कभी तुम्हें पूर्ण संतुष्ट नहीं करता। क्योंकि मैं जितना भी दूँ तुम को सदा कम ही लगता है। लेकिन तुम यह नहीं जानते जीवन की यही कमी तुम्हारे जीवन की निरंतरता बनाए रखने की बूटी है। क्योंकि यदि इंसान संतुष्ट हो गया तो अपने जीवन पथ पर कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा....और यदि ऐसा हुआ तो ज़िंदगी, ज़िंदगी ही कहाँ रह जाएगीक्योंकि बहते हुए पानी को भी यदि रोक दिया जाये तो उसमें से भी बदबू आने लगती है यह तो फिर भी ज़िंदगी है...सोचो ज़रा यह रुक गयी तो फिर इस संसार का क्या होगा....                   

Thursday, 2 January 2014

कल रात

 
सुनो जानते हो कल फिर आया था चाँद मेरे द्वारे। 
मेरे कमरे की खिड़की में टंगे जाली के पर्दे की ओट से 
चुपके-चुपके देख रहा था वो कल रात मुझे
इस बार चाँदनी भी साथ थी उसके 
कुछ कम उदास नज़र आया वो मुझे कल रात 
शायद अब मन हलका हो गया है उसका 
तभी तो चांदनी को भी मना लिया उसने कल रात 
ऐसा लगा मुझे कल रात   
जैसे दोनों किसी छोटे नन्हे शिशु की तरह खेल रहे हों मेरे साथ
जैसे चाँदनी मुझसे कह रही हो कल रात  
कि शुक्रिया दोस्त मुझे मेरा हँसतामुसकुराता चाँद लौटाने के लिए 
तुमने मुझे मेरा चाँद लौटाया है 
तो मैं भी तुम्हें कोई तोहफा जरूर देना चाहूंगी
 बस तुम ना मत करना 
और अचानक मेरे चेहरे पर चाँदनी 
 अपनी अद्भुत चमक के साथ 
टूटती हुई मोती की माला की तरह बिखर गई
और छोड़ गई अपने उस अद्भुत सौंदर्य का एक अंश 
मेरे चेहरे पर कल रात
फिर उसी सौंदर्य और भरपूर चमक को लिए 
वो हँसती-खिलखिलाती हुई जा मिली अपने चाँद के साथ 
ऐसे जैसे सागर में नदिया और फूल में खुशबू मिले  
आखिर में दोनों हाथों में हाथ डाले
हवा के बिछौने पर बादलों की ओढ़नी लिए नभ में छिप गए
तब ऐसा लगा मुझे 
जैसे चाँद के मुख पर लगे खामोशी के सभी बादल छंट गए....