जीवन का सच क्या है,
शायद सुख और दुख,
इन्हीं दो ताने बाने से ही तो बुना होता है न हमारा जीवन
सुख-दुख क्या हैं
और इनको किस प्रकार एक अलग नज़रिये से देखा जा सकता है।
जैसे सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
एक के बिना, जैसे दूसरा अधूरा है,
जैसे एक नारी और एक पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं
इतना अधूरे कि एक के बिना दूसरे के अस्तित्व,
कि कल्पना भी नहीं कि जा सकती।
इसी तरह सुख-दुख एक इंसान रूपी माँ के दो बच्चों की तरहा है
दुख एक शरारती बच्चा है,
जो सदेव अपनी माँ के आस-पास घूमता रहता है
और उसे परेशान किया करता है।
मगर सुख उस ही माँ का लाड़ला और सब से प्रिय बच्चा है,
जिसे माँ बेहद प्यार करती है
और चाहती है,कि वह सदैव उसके साथ रहे,
उसके पास रहे,
मगर वो है,
कि हमेशा अपनी माँ के साथ आँख मिचौली ही खेलना पसंद करता है।
ऐसी कितनी बातें हैं,
जो इन सुख-दुख को देखने का एक अलग ही नज़रिया रखती है।
जैसे सुख एक जलती हुई फुलझड़ी है,
जो ज़रा देर जलकर मन को खुश कर देती है।
और पलक झपकते ही बुझ जाती है,
मगर दुख एक जलती हुई अगरबत्ती के समान होता है
जो देर तक जला करता है
और अपनी खुशबू से इंसान को देर तक महकाया करता है।
या फिर समय
जो इस सुख-दुख को एक अलग परिभाषा देता है,
क्यूँकि अच्छे वक्त कि एक बुरी आदत होती है,
कि वो बीत जाता है।
उसी प्रकार बुरे वक्त कि भी,
एक अच्छी अदात होती है,
कि वो भी बीत ही जाता है।
या फिर दुखों का क्या है
दुख तो फ्री में मिलते हैं
मगर सुख की कीमत तो देनी ही पड़ती है।
कहते हैं हर दुख आने वाले सुख कि चिट्ठी होती है ,
जैसे हर रात की सुबह होती है,
इसलिए शायद,
सुख और दुख को ध्यान मे रखकर
ही वो गीत लिखा गया होगा
कि रही मनवा दुख कि चिंता क्यूँ सताती है।
दुख तो अपना साथी है।
आपको क्या लगता है
ज़िंदगी को देखने का,
क्या यह नज़रिया सही है।