Wednesday, 21 December 2011

मन की लहरें

साहिल को छुने की चाह में
मचलती सागर की लहरें
जैसे मन की तरंगों ने
ओढ़ लिया हो
लहर नुमा कोई आवरण
न जाने ऐसी कितनी तरंगें
 है हमारे मन की
जो मचलती है
सब कुछ पाने के लिए
क्यूंकि जो आज है, क्या पता
कल हो न हो
फिर क्या पता एक टुकड़ा साहिल
भी शायद इन लहरों में कटकर
न घुले,न मिले
क्यूंकि कट के घुल मिलजाना
पानी का स्वभाव होता है
किनारों का नहीं ....   

16 comments:

  1. मन को छु गयी आपकी रचना ................

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  2. शुक्रिया रोशी जी ...यूं ही संपर्क बनाये रखें आभार

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  3. मन में रहना हो तो पानी की तरह ही रहना चाहिए. किनारे की तरह नहीं. इसे ही चित्त की कोमलता कहते हैं.

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  4. साहिल को छुने की चाह में ,
    मचलती सागर की लहरें.... !
    न जाने ऐसी कितनी तरंगें ,
    है हमारे मन की ,
    सब कुछ पाने के लिए ,
    क्यूंकि जो आज है, क्या पता ,
    कल हो न हो.... !!

    इंसानों की हकीकत ब्यान करती एक खुबशुरत रचना.... :)

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  5. क्यूंकि कट के घुल मिलजाना
    पानी का स्वभाव होता है
    किनारों का नहीं ....

    ....बहुत सुंदर...

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  6. कल 23/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. क्यूंकि कट के घुल मिलजाना
    पानी का स्वभाव होता है
    किनारों का नहीं ...

    Bahut sundar bhav...

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  8. bahut umda bhaav bahut achcha likha hai.

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  9. सुन्दर अभिव्यक्ति.....
    सादर बधाई....

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  10. वाह ...बहुत ही बढि़या।

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  11. वाह पल्लवी जी..बहुत सुन्दर....
    बधाई.
    आप मेरे शहर...मेरे ही कॉलेज से हैं :-)

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  12. क्यूंकि कट के घुल मिलजाना
    पानी का स्वभाव होता है
    किनारों का नहीं .... सच्ची बात!!

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