सच सच ही होता है और झूठ झूठ ही होता है फिर कहा जाता है किसी की भलाई के लिए बोला गया झूठ सच से बढ़कर होता है। लेकिन विडंबना देखिये कि फिर भी ''सत्यम शिवम सुंदरम'' ही कहा जाता है। हम मस्ती मज़ाक में भी सहजता से झूठ बोल जाते है और गंभीर विषय में भी, शायद इसलिए कि झूठ बोलने में हमें ज्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता या फिर यूं कहें कि उसके परिणाम के बारे में ज्यादा सोचना नहीं पड़ता। इसलिए कभी भी कहीं भी झूठ बोलना सच बोलने से ज्यादा आसान होता है/हो जाता है। लेकिन सच बोलना हर वक्त संभव नहीं होता। अर्थात सच बोलते वक्त दिमाग सौ बार सोचता है तब कहीं जाकर सच बोलने की हिम्मत आती है। फिर भी जुबान लड़खड़ा ही जाती है। तभी शायद सत्य की उपमा देने के लिए सदैव एकमात्र व्यक्ति सत्यवादी हरीश चंद्र का नाम ही लिया जाता है। नहीं ?
किन्तु यदि मैं अपनी बात करूँ तो मैं तो साफ दिल से कहती हूँ कि मैं हमेशा सच नहीं बोलती। हाँ मगर इसका अर्थ यह नहीं कि मैं सदैव झूठ ही बोलती हूँ। जरूरत के अनुसार जहां बेवजह झूठ बोलने की जरूरत नहीं होती वहाँ सहजता से सच निकलता है और मन भी यही कहता है कि जबरन क्यूँ झूठ बोलना। ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं होता सभी के साथ होता है। मगर स्वीकारता कोई-कोई ही है। इसलिए कोशिश सदैव सच बोलने कि ही रहती है। किन्तु ज़रूरत पड़ने पर झूठ बोलने से भी नहीं हिचकिचाते हम, इसे आप मानव प्रवृति (human nature) का नाम भी दे सकते है।
कहते है झूठ बोलने से कभी किसी का भला नहीं होता। क्यूंकि झूठ की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती। सच है!लेकिन वर्तमान हालातों को मद्दे नज़र रखते हुए तो मैंने झूठ बोलने के कारण अधिकतर लोगों का भला होते ही देखा। और झूठ की उम्र सच से ज्यादा लंबी देखी। सच ज़्यादातर तकलीफ देता है। कभी कभी यह तकलीफ़ क्षणिक होकर गर्व, क्षमा, और सम्मान में बदल जाती है। किन्तु अधिकतर सच सामने वाले व्यक्ति को दुख ही पहुंचता है और सम्बन्धों में दरार डाल जाता है। नतीजा प्रेम के धागे में गाँठ पड़ ही जाती है। लेकिन इस सब के बावजूद भी यह कहना गलत नहीं होगा कि सच और झूठ इंसान के जुआ रूपी जीवन से जुड़े वो दो पाँसे हैं जिन्हें इंसान समय और परिस्थितियों को देखते हुए चलता है। इसलिए कभी धर्म के नाम पर धर्म युद्ध में भी छल का सहारा लेकर सत्य को बचाया गया। जैसे महाभारत में पांडवों के साथ यदि श्रीकृष्ण न होते तो उनका यह धर्म युद्ध जीतना असंभव था। लेकिन इस धर्म युद्ध में विश्व कल्याण एवं मानव कल्याण हेतु धर्म को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने ही छल की शुरुआत की तो इस तरह छल का दूसरा नाम ही झूठ हुआ इसी तरह रामायण में भी बाली का वध हो या रावण का स्वयं भगवान को भी छल का सहारा लेना ही पड़ा। कुल मिलकर सच को बचाने के लिए ही सही मगर छल तो ईश्वर को भी करना ही पड़ा ना !!! तो हम तो फिर भी इंसान है।
यह सब लिखकर मैं यह साबित नहीं करना चाहती कि मैं झूठ बोलने की पक्षधर हूँ। यह तो केवल इस झूठ सच के विषय पर मेरी एक सोच है। क्यूंकि यूं भी झूठ बोलने की आदत कोई अपनी माँ के पेट से सीखकर नहीं आता बल्कि हम स्वयं ही जाने अंजाने अपने बच्चों को छोटी-छोटी बातों के लिए झूठ बोलने का पाठ पढ़ा जाते हैं और हमें स्वयं ही आभास नहीं होता। इसलिए मैं यह नहीं कहती की झूठ सच से अच्छा होता है लेकिन यह ज़रूर कहूँगी की झूठ से यदि सब कुछ बिखर जाता है तो उसी झूठ से कई बार सभी कुछ संभल भी जाता है। क्यूंकि हर एक इंसान के जीवन में कुछ सच ऐसे भी होते हैं जिन पर यदि झूठ का पर्दा पड़ा रहे तो ज़िंदगी सुकून से कट जाती है। अधिकतर मामलों में झूठ ज़िंदगी बचा लेता है कभी बोलने वाले की स्वयं अपनी जिंदगी तो कभी उस सामने वाले इंसान की जिंदगी जिस से झूठ बोला जारहा है/गया हो।
अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी कि इंसान की ज़िंदगी में दोनों (झूठ और सच) का ही अपना एक विशेष स्थान है, एक विशेष महत्व है, जिसके चलते दोनों में से किसी एक को नकारा नहीं जा सकता।