Wednesday, 22 August 2012

सूर्यास्त और मेरा मन...


कभी यूं भी होता है कि 
अक्सर किसी नदी किनारे शाम के वक्त
उस नदी के निर्मल जल में पैरों को डालकर बैठना
मुझे बहुत अच्छा लगता है
न सिर्फ बैठना बल्कि
घर लौटते हुए परिंदो के करलव के साथ   
 देखना उस सूर्य को अस्त होते हुए,
ना जाने क्यूँ उस अस्त हुए सूर्य को देख  
अठखेलियाँ करता है मेरा मन
बिलकुल उसी सूर्य की आठखेलियों की भांति 
 जैसे वह सूर्य बदलता है अपना रंग 
उस आकाश गंगा में नहा कर 
खुद को शीतल करने के लिए,
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उस वक्त बिखर जाते हैं
उस विशाल आकाश गंगा में भी नजाने कितने ही रंग 
कभी सिलेटी, तो कभी नीला, तो कभी गुलाबी सा मोहक रंग 
तब उन रंगों को देखकर  
मेरे मन के अंदर भी बिखर जाते है   
भांति-भांति के रंग,
कभी एक मुस्कुराहट, तो कभी आँखों में नमी
कभी क्रोध की ज्वाला, तो कभी आत्म संतुष्टि का भाव  
ठीक वैसे ही 
जैसे आकाश गंगा में अस्त होता हुआ सूर्य कई रंग बदलता  है,
उस वक्त ऐसा प्रतीत होता है मानो ,
जैसे यह आकाशा गंगा का रंग नही,
यह रंग है हमारी ज़िंदगी का,
क्यूंकि हमारी ज़िंदगी भी तो,
एक नदी के प्रवाह की तरह ही बहती चलती है,
शुरुआत में एक अबोध शिशु जैसी 
निर्मल, कोमल, निश्छल
लेकिन समय की एक हलचल    
हमारी ज़िंदगी की नदी को 
एक नयी दिशा देने में सक्षम सिद्ध होती है 
और उस हलचल में हिचकोले खाता हमारा अस्तित्व  
कभी वियोग, कभी मिलाप, या कभी विछोह का संताप 
सहते हुए बस डूबता उभरता रहता है 
और एक दिन यह ज़िंदगी की नदी भी  
जा मिलती है उस सागर में 
जहां से फिर कभी कोई वापस नहीं आता....