Wednesday, 13 June 2012

इश्क़ बनाम दिमाग का लोचा ...

कितना कुछ छुपा है न इस एक शब्द में, नहीं ? कहने को नफरत को भी प्यार से जीता जा सकता है इसलिए शायद यह कहावत बनी होगी कि, "प्यार और जंग में सब जाएज़ है" अर्थात जब कोई इंसान प्यार में होता है, तो वो सही या गलत नहीं होता सिर्फ प्यार होता है मगर कमाल की बात तो यह है कि एक तरफ जहां उपरोक्त कहवात का प्रयोग किया जाता है वहीं दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, कि प्यार हमेशा उसे करो जो तुमको प्यार करे न कि उससे जिसे तुम प्यार करो,..तो कहीं कुछ लोग यह भी कहते हैं की "ज़िंदगी में हर इंसान को एक बार प्यार ज़रूर करना चाहिए क्यूंकि प्यार इंसान को बहुत अच्छा बना देता है" अर्थात बेचारा कोई इंसान यदि गलती से भी इन सब कहावतों पर ध्यान देकर प्यार करना चाहे तो वो कभी प्यार कर ही नहीं सकता।  पूछिये क्यूँ ? :-)अरे भई सीधी सी बात है दिमाग जो घूम जायेगा बेचारे का....और क्या करे ,क्या ना करे की भूल भुलाइयाँ में भटकते-भटकते उसकी पूरी उम्र गुज़र जाएगी। मगर वह बेचारा चाह कर भी कभी किसी से प्यार ना कर पाएगा। मगर जब कोई इंसान प्यार में होता है, तो उसे समझ ही कहाँ आता है, क्या सही क्या गलत उसे तो कभी उत्तर सही लगता है, तो कभी दक्षिण, कभी पूरब सही लगता है, तो कभी पश्चिम कभी-कभी तो यह सारी दिशाएँ ही एक साथ गलत नज़र आने लगती है ,बड़ा लोचा है भई कसम से....न दिल काम करता है, न दिमाग, यह समझना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सही क्या गलत पता है....ऐसे में ना !!! दिल से एक आवाज़ आती है।  
"एक मासूम सी नाव है ज़िंदगी, जो माझी की आँखों में झांक कर किनार ढूँढने की कोशिश किया करती है" 
मगर अफसोस कि उस नाव को कभी किनारा नहीं मिलता और लोग कहते हैं..... 
"हर किसी को मुकम्बल जहां नहीं मिलता 
किसी को ज़मीन ,तो किसी को आसमा नहीं मिलता"
ऐसे हालातों के चलते कभी लगता है और के लिए जीते हुए तो आधी ज़िंदगी गुज़र गयी तो क्यूँ ना अब दो पल ज़िंदगी के अपने लिए भी जी लिए जाए मगर उन दो पलों को जी भर जी लेने के बाद भी..... मन में कहीं एक कांटा सा अटक जाता है और उन गुजरे हुए लम्हों के प्रति मन में एक ग्लानि का भाव आजाता है, जैसे नींद से जागकर हकीकत से समाना होने पर महसूस होता है ना ... कुछ वैसा ही। उस वक्त, अपने प्यार में गुजरे उन हसीन लम्हों को लेकर ही इंसान खुद को अपराध बोध से ग्रसित पाता है क्यूँ ? कहते है प्यार की आखिरी मंज़िल प्यार को पा लेना होता है। मगर अपने प्यार को पा लेने के बाद भी, प्यार करने वाले सभी लोगों के मन में अपने ही परिवार के लोगों के प्रति एक ग्लानि क्यूँ रहा करती है क्यूँ ? उस वक्त अपनो के द्वारा मिल रहे निश्चल प्रेम और विश्वास के प्रति रह-रह कर यह खयाल आता है कि हम उस प्यार और विश्वास के काबिल नहीं फिर चाहे उनकी प्रेम कहानी सफल हुई हो या विफल कभी दिल गाता है "यह इश्क हाय बैठे-बिठाये जनत दिखाये हाँ हो रामा"....तो दूजे ही पल दिल से आवाज आने लगती "रहने दो छोड़ो भी जाने दो यार हम न करेंगे प्यार" .... सब कुछ इतना  कॉन्फ्युजनिंग सा हो जाता है कि दिमाग का लोचा हो जाता है कोई यह बताए कि भई आखिर यह प्यार इतना कोंपलीकेटेड क्यूँ होता है ....   

10 comments:

  1. "कोई यह बताए कि भई आखिर यह प्यार इतना कोंपलीकेटेड क्यूँ होता है .... "

    इस कोंपलीकेसी के बारे मे कोई प्रेम विशेषज्ञ डाक्टर ही उचित राय दे सकता है। :D

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    1. हाँ दिल का डॉ टाइप कोई इंसान जिसने इश्क़ में phd की हो ;-)

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    2. डॉक्टरों ने रिसर्च कर ली है वे इसे हार्मोंस की गतिविधि मानते हैं. यह बात मजनूँ को पता होती तो वह कभी इश्क नहीं करता. अनपढ़ बेचारा :))

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    3. हा हा हा ...आप बिलकुल सही कह रह हैं अंकल.... बेचारा मजनूँ :):)

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    1. अरे जनाब...काजल जी,
      "यह इश्क़ नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिये
      एक आग का दरिया है और डूब के जाना है"

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  3. मामला दिल का है,,,,,इसलिए इसका जबाब प्रेमरोग विशेषज्ञ ही दे सकता है,,,,

    वाह,,,, बहुत सुंदर कोंपलीकेटेड प्रस्तुति,,

    MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: विचार,,,,

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  4. Pallavi ji....Prem to bada lamba chauda vishay hai.....lekin use bhi apne badi bariki se kam shabdon me prastut kar diya....achchha lekh....
    Hemant

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  5. "एक मासूम सी नाव है ज़िंदगी, जो माझी की आँखों में झांक कर किनार ढूँढने की कोशिश किया करती है"

    जिंदगी का एक फलसफा यह भी तो है

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