सर्दियों की ठंडी ठंडी सुबह में मैं और मेरे घर का आँगन
मध्यम-मध्यम बहती हुई शीत लहर सी पवन
जैसे मेरे मन में किसी गोरी के रूप को गढ़ रहे है
जैसे ही हवा के एक झौंके से ज़रा-ज़रा झूमता है एक पेड़
तो ऐसा लगता है जैसे किसी सुंदर सलोनी स्त्री के अधरों पर बिखर रही है
एक मीठी सी मुस्कान,
दूर कहीं बादलों से ढके आकाश में
किसी एक चिड़िया का नज़र आ जाना
यूँ लगता है, जैसे सूने किसी पनघट पर नीर लेने आयी
किसी कामायनी के घूँघट का ज़रा हल्के से सरक जाना
और उसकी एक हलकी सी झलक का दिख जाना...
आह ! कितना अदबुद्ध है यह नज़ारा,
जी चाहता है इसे हमेशा-हमेशा के लिए अपने अंतस में भरलूँ
कि जब मन उदास होता है, साथ अवसाद होता है।
तब इन्हीं सुंदर कोमल खूबसूरत पलों को याद करने पर
अशांत मन ज़रा देर के लिए ही सही ही
ठंडक और सुकून पाता है
तब प्रकृति के यही नज़ारे हमारे अंदर नव जीवन का संचार करते है
प्रेरित करते हैं हमें पुनः नयी शुरुआत करने के लिए
जानते हो क्यूँ ? क्यूंकि यह प्रकृति हमारी माँ है
और कोई भी माँ अपने किसी भी बच्चे को
यूँ दुख में विलीन हो, अवसाद में गुम होता नहीं देख सकती
मगर अफ़सोस कि यह वो माँ है,
जिस पर उसके अपने ही बच्चे कुठाराघात करने से बाज़ नहीं आते।
किन्तु फिर भी जब तक उसमें प्राण बाकी है।
जहां तक भी संभव है वह अपने बच्चों को निराशा नहीं देती
उस पर भी जब हमारे अत्याचारों की अति पर
कोई प्रकृतिक आपदा आती है जैसे
सुनामी या बाढ़, बादल का फटना या ज़मीन का धंसना,
तब भी त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए भी
मढ़ देते है, सारा दोष उसी के सर पर
बिना यह सोचे कि यह उस माँ का गुस्सा नहीं
बल्कि उसकी एक दरकार है
कि अब भी वक्त है संभल जाओ
वरना एक वक्त ऐसा आयेगा
जब मैं स्वयं चाहकर भी
नहीं लुटा पाऊँगी तुम पर अपना प्यार
अपने सौंदर्य की वो बहार, जिसे देख-देखकर तुम बड़े हुए हो
जिसकी धूप छाँव में, पेड़ो के पीछे छिपकर कभी खेले कभी सोये
जिसने अंजाने में ही तुम्हें जीवन के मूल्य सिखा दिये।
अरे ज़रा तो सोचो क्या दोगे तुम अपनी आने वाली पीढ़ी को ?
यह कंक्रीटों का जंगल,
या पंखे और AC की घुटन भरी हवा,
ज़रा एक बार दिल से सोचकर देखो।
गूगल पर ही दिखा पाओगे उन्हें यह प्रकृतिक नज़ारे
यह पंछी नदिया पवन के झोंके, यह चाँद सूरज, यह पेड़ पौधे,
यह फूल बगिया, यह जंगल, यह जानवर यह सारे नज़ारे,
क्या शेष रह जाएगा पास में तुम्हारे ?
न खाने को शुद्ध अन्न होगा, न पीने को साफ पानी।
तब क्या अपनी ही संतान को ऐसा विष देना चाहोगे तुम ? नहीं ना !
तो ज़रा एक बार मेरे बारे में भी तो सोचो,
सोचो अपने दिल पर हाथ रखकर सोचो।
मैं कैसे दे दूँ तुम्हें वो विष,
जो तुमने मेरे आँचल में घोल दिया है।
मुझे माँ रूप में खुद अपने अंदर देखो,
देखो ज़रा "खुद भी देखो कल्पना मात्र में एक बार प्रकृति बनकर"
तब शायद तुम समझ सको मेरा दर्द।
बहुत ही सुन्दर तरीके से दर्शाया है आपने प्रकृति का दर्द...सही में हम स्वार्थी हो गए है जो प्रकृति हमें जीवन देती है..जो जीने का आधार है..उसी को निर्जीव कर दिया ..आने वाली पीढ़ी को सच में कंक्रीट के जंगल ही देंगें..बहुत बेहतरीन रचना..आपको बधाई..पल्लवी जी..
ReplyDeleteप्रकृति के दुख, टीस और कराहना को आपने कितने गहरे अनुभव किया है, इसका उदाहरण है यह संस्मरण। कहीं न कहीं लोगों को ऐसे संस्मरणों, लेखों और कविताओं के माध्यम से प्रकृति के बारे में सोचने को अवश्य विवश होना पड़ेगा। लेकिन डर है कि ऐसी सोच बनने में कहीं देर न हो जाए।
ReplyDeleteप्रकृति के साथ रहने से अपनी प्रकृति का भान होने लगता है।
ReplyDeleteपेड़ो के आँख से झाँकता जीवन
ReplyDeleteशायद गूगल पर ही दिकयेंगे पेड-पौधे ,नदिया........हम आने वाली नस्ल के लिए कुछ नहीं छोडेंगे........
ReplyDeleteबहुत सुंदर और लाजवाब रचना
ReplyDeleteप्राकृति माँ ही है सबकी ... और माँ का क्याल हम ही नहीं रख पा रहे हैं ...
ReplyDeleteजब प्रकृति अपबा हिसाब वसूलेगी तो शायद देर न हो चुकी हो ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
बहुत उत्कृष्ट और सटीक अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर । प्रकृति का मनोरम वर्णन |
ReplyDeleteप्रकृति ही माँ है माँ से प्यार करोगे तो सुखी रहोगे ! बहुत सुन्दर चित्रण
ReplyDeleteनई पोस्ट मेरे सपनों का रामराज्य ( भाग २ )
सुन्दर प्रस्तुति , प्रकृति जितनी ममतामयी है उतनी ही क्रूर भी , अगर प्रकृति का सम्मान नहीं किया गया तो प्रकृति अपना वीभत्स रूप दिखाती है .. केदार नाथ कौन भूल सकेगा ..
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