बेशक बदलते वक़्त के साथ खुद को बदलते हम
समय की कदम ताल से, ताल मिलाते हम
इस अनचाही सी कोशिश में, खुद को झोंकते हम
इस वक़्त की आपाधापी में, यह नहीं जानते हम
थोड़ी कुछ पाने कि चाह में कितनों को खोते हम....
बचपन छूटा आयी जवानी, कुछ दोस्त बने, कुछ दिलजानी
फिर आया मौसम कुछ बनने का, सपनों को पूरा करने का,
कुछ के हिस्से आयी नौकरी, कुछ के हिस्से आयी चाकरी
कुछ ने किए बस सपने पूरे, कुछ ने किया बस अपनों को पूरा
बस इस सब आपाधापी में, कुछ रिश्ते पीछे छूट गए
वो बाजू वाले काका से, वो छज्जे वाली मौसी से
नातों के पापड़ सब सूख गए
बरनी जो ना हिलायी रिश्तों की बरसों, कब संबंध सारे टूट गए
जीवन की इस आपाधापी में कुछ रिश्ते पुराने छूट गए, कुछ टूट गए
मर मर के जिये जिन रिश्तों को, वो वक़्त आने पर टूट गए
खून पसीना डाल डाल के जिन नन्हें पौधों को सींचा था
वही पौधे जब खुद झाड़ बने, पंथी को सहारा देना भूल गए
कुछ ऐसा नाता टूटा रुचियों से, जीवन का सुर ही टूट गया
के दिल से दिल के जो रिश्ते थे,चंद अल्फ़ाज़ों से टूट गए
जीवन की इस आपाधापी में कुछ रिश्ते पुराने छूट गए कुछ टूट गए .....
बहुत बढ़िया बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteसभी को कोई ना कोई, कुछ ना कुछ याद दिलायेगी यह कविता.
बहुत सुन्दर कविता , नपे तुले शब्दों में पूर्ण अर्थ समझाने वाली यह कविता दिल छू गई।
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