अटकन चटकन का ले काफ़िला, कब आगे हम चल निकले थे
कब भटकन की राह पर बढ़ गए
पता ही नहीं चला ...
कुछ साथ है, कुछ साथ थे, कुछ दोस्त पुराने कब पीछे छूटे
पता ही नहीं चला ...
नए जोश में हटकर चलने, आशाओं के दीप जालने
कब हम जा के हवा से भिड़ गए
पता ही नहीं चला...
इस चलने में, गिर गिर पड़ने और संभलने
युग कितने ही बीत गए कुछ
पता ही नहीं चला...
इसी उधेड़ बुन के चलने में, कुछ उलझने सुलझाने में
कब बच्चे से बड़े हो गए
पता ही नहीं चला...
कुछ दोस्त पुराने, नए जमाने संग ताल बैठाने
कभी ताल मिलाने कब अटके, कब निकल गए
पता ही नहीं चला...
आँख खुली जब हम ने जाना, हम भी चलना सीख गए
इस सपने से जगने में हाय, कितने सावन बीत गए
पता ही नहीं चला...
अब भी प्यार देर नहीं है, समझ सको तो समझो इशारे
हम में तुम में प्राण वही है
पता ही नहीं चला... पल्लवी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार १८ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
बहुत प्रभावी कविता। निस्संदेह!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteवाह... सुन्दर लेखन
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