क्या कहूँ तुम से कि नि शब्द हूँ मैं आज
तुम्हारी बातें, जैसा मेरा श्रृंगार
सुनते ही मानो....मानो मेरे मन मंदिर में जैसे, बज उठते हैं हजारों सितार
एक नहीं, बल्कि कई सौ बार
उठती रहती हैं लहरें दूर.... कहीं मन के उस पार
आज भी सुनने को आतुर है मन, फिर एक बार वही कही सुनी
सुनी अनसुनी बातें, बार बार लगातार
पल प्रतिपल कि वो झंकार
कह नहीं पाती मैं तुम से, पर हाँ सच तो यही है
मैं सुनना चाहती हूँ तुम से तुम्हारे प्यार का इज़हार
वो प्यार
जो दिखता तो है, उस पार
पर नाजने क्यूँ रोक लेते हो तुम उस पर करके प्रहार
बेह क्यूँ नहीं जाने देते अपने अंदर के उस प्रेम आवेग को एक बार कि प्यार में नहीं होता कुछ सही गलत
एक बार या दो बार
डूब जाने दो उसमें यह संसार
यह मर्यादा कि लकीरें, यह संस्कारों की बेड़ियाँ, यह रिश्तों के बंधन, यह सामाजिक संगठन
कुछ नहीं रह जाता है शेष जब कभी होता है आत्मा से आत्मा का मिलन ....पल्लवी
सरल शब्दों मे लेखन। वाह
ReplyDeleteNice poem
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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