गुज़र रही है ज़िंदगी कुछ इस तरह कि जैसे इसे किसी की कोई चाहत ही नहीं
कभी दिल है तो कभी दिमाग है ज़िंदगी
कभी एक नदिया तो कभी एक किताब है ज़िंदगी
न मंजिल का पता है ना राह की कोई खबर
न डूबने का डर है न उबरने की कोई फिकर
शब्द भी खामोश है और कलम भी बेज़ुबान है
बस समय की धारा में बहते चले जाने का मन है
जो हो रहा है, जो चल रहा है बस चलने दो, बस नदी कि तरह बहने दो यह ज़िंदगी
लिखने दो कोई नई दास्तां या मिटा देने दो कुछ पुराना इस ज़िंदगी को
यादों में जीते तो गुज़र ही जाती है ज़िंदगी
कभी बिना किसी याद के भी अपने साथ बहा ले जाने दो ज़िंदगी
न सोचो, न समझो न देखो, न सुनो
बस कहीं गुम हो जाने दो यह ज़िंदगी
होश में रहकर तो सभी जिया करते है
कभी मदहोशी में भी गुज़र जाने दो यह ज़िंदगी
जहां न कल का पता हो, न आज की खबर...बस ...यदि कुछ साथ हो तो वो हो ज़िंदगी।
वाकई, बहुत अपनी सी भावनाएं व्यक्त की हैं जिंदगी के बारे में।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 12 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत कुछ है और कुछ भी नही ज़िन्दगी
ReplyDeleteVery beautifully work👏👏
ReplyDeleteअतिसुन्दर !रचना ,आभार
ReplyDeleteसच है ... क्योंकि सोचने की शक्ति साथ है ... हर बार अलग तरह की सोच जन्म लेती है जिंदगी के बारे में ...
ReplyDeleteअच्छी रचना है ...
जिंदगी के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जाता हैं। साहित्य के रूप में भी। पर जीवन को समझ पाना इतना सरल और सहज नहीं हैं। जितना हमारा लिखना और पढ़ना। काश जिंदगी लिखकर पढ़कर समझ में आ जाती। तो ये पहेली नहीं होती ।
ReplyDeleteशुन्दर शब्द रचना
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