Monday 30 November 2015

स्त्री ...


इस अभिव्यक्ति की जान अंतिम पंक्तियाँ मेरी नहीं है मैंने उन्हें कहीं पढ़ा था। कहाँ अब यह भी मुझे याद नहीं है। कृपया इस बात को अन्यथा न लें।   

'कोमल है कमजोर नहीं तू शक्ति का नाम ही नारी'
स्त्री एक कोमल भाव के साथ एक कोमलता का एहसास दिलाता शब्द 
जिसके पीछे छिपी होती है 
एक माँ ,एक बहन ,एक बेटी और एक पत्नी 
जो जन्म ही लेती एक सम्पूर्ण सृष्टि के रूप में 
फिर भी एक पुरुष को अवसर देती है अपने साथ खड़े होने का 
अपनी समग्रता और सम्पूर्णता में उसे श्रय देने का
इसलिए पत्नी के बाद माँ बन खुद को सम्पूर्ण समझती है वो 
किन्तु, फिर भी संपूर्णता की तलाश कभी पूरी नहीं होती
क्यूंकि वक्त दर वक्त 
यही पुरुष अपने अहंकार के चलते 
उसे लोगों का कुरेदा हुआ ज़ख्म बना देता है 
किन्तु फिर भी सारी वेदना को सहते हुए आगे बढ़ती है वो 
खुद ज़ख्म होते हुए भी औरों के लिए मरहम का काम करती है वो 
और उदहारण बनती है अगली स्त्री के लिए  
किन्तु तब भी नहीं जान पाता वो  नादान पुरुष 
एक स्त्री के मन की यह ज़रा सी बात 
के
जो समर में घाव खाता है उसी का मान होता है
छिपा उस वेदना में अमर बलिदान होता है
सृजन में चोट खाता है
छैनी और हथोड़ी का
वही पाषाण मंदिर में भगवान होता है ।    






Monday 2 November 2015

खामोशी के चंद आँसू



कैसे अजीब होते है वो पल, जब एक इंसान खुद को इतना मजबूर पाता है 
कि खुल के रो भी नहीं पाता।  
तब, जब अंधेरी रात में बिस्तर पर पड़े-पड़े निरर्थक प्रयास करता है 
उस क्रोध के आवेग को अपने अंदर समा लेने का 
तब और अधिक तीव्रता से ज़ोर मारते है 
वह आँसू जिनका अक्सर गले में ही दम घोट दिया जाता है। 
कैसा होता है वो पल जब हम अपने ही आंसुओं को 
अपने ही गले में घोटकर मार देने के लिए विवश हो जाते है।
कितनी बेबसी, कितनी विवशता होती है उन पलों में   
कि लगता है जैसे सांस घुट जायेगी अभी  
कितना कठिन और सशक्त होता है वह विलाप 
जिसे हम किसी को दिखाना नहीं चाहते।
किन्तु जब चाहकर भी हम, 
उसके इस सशक्ति पन को अपने भीतर रोक नहीं पाते 
तब वह दबे छिपे आँसू अपने पूरे वेग के साथ, 
हम पर वार करते है।
और हम अपने उस क्रोध (अहम)पर विजय पाने हेतु
अपने पूरे बल से उस क्रोध अग्नि के 
अपने उन आंसुओं को अपने गले ही में घोट देते है 
तब आँखें तो भर आती है उस मृत क्रोध के गर्म लहू से 
जो अक्सर आँख का आँसू बन तकिया भिगो जाता है 
लेकिन उस समय जिस पीड़ा से गुज़र रहे होते है हम 
वह तो नि: शब्द :है। 
दमघोट कर मारे जाने वाले इंसान की भी कुछ ऐसी ही दशा होती होगी 
जब प्राण निकलते वक्त ढूंढते होंगे कोई मार्ग 
कि चंद साँसे और मिल जाये या 
खुली हवा मिले, तो शायद ज़िंदगी बच जाये 
मगर उस वक्त,वक्त को कहाँ दया आती है 
वह तो हमारी ही तरह क्रूर बनकर  
घोट देता है सामने वाले का दम 
और शेष रह जाते है खामोशी के चंद आँसू...