Wednesday 18 December 2013

खुद भी देखो एक बार प्रकृति बनकर....


सर्दियों की ठंडी ठंडी सुबह में मैं और मेरे घर का आँगन 
मध्यम-मध्यम बहती हुई शीत लहर सी पवन 
जैसे मेरे मन में किसी गोरी के रूप को गढ़ रहे है
जैसे ही हवा के एक झौंके से ज़रा-ज़रा झूमता है एक पेड़
तो ऐसा लगता है जैसे किसी सुंदर सलोनी स्त्री के अधरों पर बिखर रही है
एक मीठी सी मुस्कान, 
दूर कहीं बादलों से ढके आकाश में 
किसी एक चिड़िया का नज़र आ जाना 
यूँ लगता है, जैसे सूने किसी पनघट पर नीर लेने आयी 
किसी कामायनी के घूँघट का ज़रा हल्के से सरक जाना 
और उसकी एक हलकी सी झलक का दिख जाना...

आह ! कितना अदबुद्ध है यह नज़ारा, 
जी चाहता है इसे हमेशा-हमेशा के लिए अपने अंतस में भरलूँ 
कि जब मन उदास होता है, साथ अवसाद होता है। 
तब इन्हीं सुंदर कोमल खूबसूरत पलों को याद करने पर 
अशांत मन ज़रा देर के लिए ही सही ही 
ठंडक और सुकून पाता है 
तब प्रकृति के यही नज़ारे हमारे अंदर नव जीवन का संचार करते है 
प्रेरित करते हैं हमें पुनः नयी शुरुआत करने के लिए 
जानते हो क्यूँ ? क्यूंकि यह प्रकृति हमारी माँ है 
और कोई भी माँ अपने किसी भी बच्चे को 
यूँ दुख में विलीन हो, अवसाद में गुम होता नहीं देख सकती 
मगर अफ़सोस कि यह वो माँ है, 
जिस पर उसके अपने ही बच्चे कुठाराघात करने से बाज़ नहीं आते। 
किन्तु फिर भी जब तक उसमें प्राण बाकी है। 
जहां तक भी संभव है वह अपने बच्चों को निराशा नहीं देती 

उस पर भी जब हमारे अत्याचारों की अति पर 
कोई प्रकृतिक आपदा आती है जैसे    
सुनामी या बाढ़, बादल का फटना या ज़मीन का धंसना, 
तब भी त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए भी 
मढ़ देते है, सारा दोष उसी के सर पर 
बिना यह सोचे कि यह उस माँ का गुस्सा नहीं 
बल्कि उसकी एक दरकार है 
कि अब भी वक्त है संभल जाओ 
वरना एक वक्त ऐसा आयेगा 
जब मैं स्वयं चाहकर भी 
नहीं लुटा पाऊँगी तुम पर अपना प्यार 
अपने सौंदर्य की वो बहार, जिसे देख-देखकर तुम बड़े हुए हो  
जिसकी धूप छाँव में, पेड़ो के पीछे छिपकर कभी खेले कभी सोये 
जिसने अंजाने में ही तुम्हें जीवन के मूल्य सिखा दिये। 

अरे ज़रा तो सोचो क्या दोगे तुम अपनी आने वाली पीढ़ी को ?
यह कंक्रीटों का जंगल, 
या पंखे और AC की घुटन भरी हवा, 
ज़रा एक बार दिल से सोचकर देखो। 
गूगल पर ही दिखा पाओगे उन्हें यह प्रकृतिक नज़ारे 
यह पंछी नदिया पवन के झोंके, यह चाँद सूरज, यह पेड़ पौधे, 
यह फूल बगिया, यह जंगल, यह जानवर यह सारे नज़ारे, 
क्या शेष रह जाएगा पास में तुम्हारे ? 
न खाने को शुद्ध अन्न होगा, न पीने को साफ पानी। 
तब क्या अपनी ही संतान को ऐसा विष देना चाहोगे तुम ? नहीं ना ! 
तो ज़रा एक बार मेरे बारे में भी तो सोचो, 
सोचो अपने दिल पर हाथ रखकर सोचो। 
मैं कैसे दे दूँ तुम्हें वो विष, 
जो तुमने मेरे आँचल में घोल दिया है।
मुझे माँ रूप में खुद अपने अंदर देखो, 
देखो ज़रा "खुद भी देखो कल्पना मात्र में एक बार प्रकृति बनकर" 
तब शायद तुम समझ सको मेरा दर्द।
        

Wednesday 11 December 2013

एक मुलाक़ात चाँद के साथ...


कल रात मैंने चाँद को देखा। सूने आकाश में उदास बहुत उदास सा जान पड़ा वो मुझे। कल रात ऐसा लगा जैसे बहुत कुछ कहना चाहता है वो मुझ से। वरना इस कड़कड़ाती ठंड की ठिठुरती रात में भला वो अपनी पूरी जगमगाहट लिए मेरी खिड़की पर क्या कर रहा था। शायद बहुत कुछ था उसके पास, जो वो कहना चाहता था मुझसे, मगर इस चमक चाँदनी का स्वांग भरने की क्या जरूरत थी उसे। मैं तो यूँ भी उसकी दीवानी हूँ। लेकिन शायद वह अपने रंग रूप के माध्यम से मुझे लुभाना चाहता था। मुझे आकर्षित करना चाहता था, ताकि में उसकी सुंदरता से मोहित होकर ही सही उसकी बात को सुन लूँ। क्यूंकि यूँ तो आमतौर पर चाँद से बातें तो सभी किया करते हैं। मगर उसके दिल की कोई सुनता ही नहीं। सब बस उसे अपनी आप बीती सुनना चाहते है और सुनाते भी है। मगर जाने क्यूँ उसकी आँखों की नमी, उसका दर्द, उसका अकेलापन किसी को दिखाई ही नहीं देता कभी...। आखिर हर किसी को कोई एक तो चाहिए ही होता है ना जो शांति से, पूरी ईमानदारी के साथ तुम्हारी बात सुन सके! नहीं ? इसलिए तो होते हैं ना, रिश्ते प्यार मोहब्बत के, दोस्ती के, नाते रिश्तेदारों के। हाँ यह बात अलग है कि इन रिश्तों की भीड़ में भी कोई एक ही ऐसा होता है जिसे अपने दिल की बात कह देने के बाद कुछ दिल हल्का सा महसूस करता है। मगर कोई होता तो है न...पर इस चाँद के पास तो कोई है ही नहीं। यह किस से कहे अपने दिल की बात, अपने जज़्बात। शायद आज इसलिए इसका मौन मुखर हो ही गया। आखिर कोई कब तक चुप रहे और सहे यह खामोशियाँ। माना की खामोशियों का भी अपना एक अलग ही वजूद होता है, जो स्थिति परिस्थिति के हिसाब से अपना रंग बदलता है, मगर हमेशा मन को अच्छी नहीं लगती यह खामोशियाँ...तभी तो इंसान ने समाज बनाया और समाज ने आपसी रिश्ते। सच वरना कितना अकेला होता न यह इंसान, इस प्रकृति की तरह। अकेला खामोश तन्हा, जो चाहकर भी कभी अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता। सोचो ज़रा कैसा लगता हो उन मूक-बधिर लोगों को, ध्यान दिया है क्या कभी उनकी पीड़ा पर, जो न अपने मन की कह सकते है ना सुन सकते हैं। कितने अंजान है वो इस कहने सुनने के सुख से! उन्हें तो पता ही नहीं कि किसी को कुछ कहना और किसी से कुछ सुनना किस तरह न सिर्फ जीवन बल्कि कई बार ह्रदय परिवर्तन का कारण भी बन जाता है, और एक हम हैं जो अब भी लड़का लड़की की इच्छाओं के प्रति अपने ही अहम के कुएं में कूपमंडूक बने घुटे जा रहे हैं। बिना यह सोचे, बिना यह समझे कि हमें केवल एक स्वस्थ शिशु भी मिल जाये तो बहुत है। क्या फर्क पड़ता है कि वह लड़का है या लड़की। ज़रा सोचो। एक बार इस नज़र से भी सोचकर तो देखो। मेरे दुश्मन, मेरे भाई मेरे हम साये....  

Wednesday 4 December 2013

सर्द हवाओं में ठिठुरते एहसास....और तुम


सर्द हवाओं में ठिठुरते एहसास और तुम 
इन दिनों बहुत सर्दी है यहाँ,  
एकदम गलन वाली ठंड के जैसी ठंड पड़ रही है
जिसमें कुछ नहीं बचता
सब गल के पानी हो जाना चाहता है
जैसे रेगिस्तान में रेत के तले सब सूख जाता है ना 
बिलकुल वैसे ही यहाँ की ठंड में भी कुछ नहीं बचता  
यहाँ तक के खुद का वजूद भी नहीं,अस्तित्व हीन सी लगने लगती है ज़िंदगी 
जिसकी न कोई राह है, न मंज़िल, फिर भी बस चले जा रही है 
किसी बर्फ की चट्टान के जैसी ज़िंदगी, जो कतरा-कतरा पिघल रही है 
ऐसे में जब कभी घर के बाहर निकलना होता है 
तब जैसे इन सर्द हवाओं में मेरे सारे एहसास ठिठुर जाते है 
सारे जज़्बात सिकुड़ जाते है  
और फिर जब मौसम की ठंडक 
धीरे-धीरे किसी बुझते हुए दिये की कप कपाती लौ की भांति 
मेरे दिमाग को सुन्न करना आरम्भ करती है 
तब मैं भी चुपके से जला लेती हूँ अपने अंदर तुम्हारे नाम की एक सिगड़ी
और डाल देती हूँ उसमें कोयला नुमा जलती हुई कुछ यादें,वादे, मुलाकातें 
तब उन यादों,वादों और मुलाकातों की गरमी पाकर 
फिर जी उठते है मेरे अंदर के कुछ मरे हुए एहसास मेरे जज़्बात....और तुम 

Monday 18 November 2013

पेड़ों पर अंतिम सांस लेते हुए पत्तों की दास्ताँ

  

 

सर्द हवाओं में मेरे साथ साथ चलती
दूर बहुत दूर तलक मेरे साथ सूनी लंबी सड़क
जिस पर बिछे है
न जाने कितने अनगिनत लाखो करोड़ों
सूखे पत्ते नुमा ख्याल
जिनपर चलकर कदमों से आती हुई पदचाप
ऐसी महसूस होती है, मानो यह कोई पदचाप नहीं
बल्कि किसी गोरी के पैरों की पायल हो कोई
जिसकी मधुर झंकार सीधा दिल पर दस्तक देती है
लेकिन जब देखती हूँ पत्तों से रिक्त पेड़ को
तो ऐसा लगता है कि जैसे ज़िंदगी अपने अंतिम सफर पर पहुँचकर
इंतज़ार कर रही है
उस पल का, जब हवा का कोई एक झोंका आए
और उन बचे हुए प्रतीक्षा में लीन 
पत्ते नुमा प्राणों को अपने साथ ले जाये
ताकि फिर एक बार जन्म ले सके, एक नयी ज़िंदगी 
और 
जीवन के संघर्षों से आहात, एक पुरानी हो चुकी ज़िंदगी को विराम मिल सके....  

Sunday 10 November 2013

ज़िंदगी


यूं तो सभी की ज़िंदगी एक किताब है 
मगर तुम से मिलकर जाना कि 
तुम भी तो एक बंद किताब की तरह ही हो 
जिसकी परत दर परत, एक एक करके
मुझे हर एक पन्ने को खोलना है 
और न सिर्फ खोलना है, बल्कि पढ़ना भी तो है
हाँ यही तो चाहते हो न तुम भी 
कि मैं पढ़ सकूँ तुम्हारा मन 
तुम्हारी ज़िंदगी की किताब से 
ताकि तुम भी खुलकर महक सको, चहक सको 
किसी बंद कली की तरह
क्यूंकि अक्सर जलती हुई अगरबत्ती सी ज़िंदगी 
सुलगती हुई महकदार अगरबत्ती सी ही, तो हो जाना चाहिती है ना मेरे दोस्त ....      

Tuesday 24 September 2013

कुछ खामोशियाँ ऐसी भी ...


कभी देखा सुना या महसूस भी किया है तन्हाइयों को 
खामोशी की चादर लपेटे एक चुप सी तन्हाई 
जो दिल और दिमाग के गहरे समंदर से निकली हुई एक लहर हो कोई 
जब कभी दिलो और दिमाग की जद्दोजहद के बीच शून्य में निहारती है आंखे 
तो जैसे हर चीज़ में प्राण से फूँक जाते है 
और ज़रा-ज़रा सांस लेता हुआ सा प्रतीत होता है 
सुनो क्या तुमने भी कभी महसूस किया है तन्हाइयों को इस तरह ...

पक्का नहीं किया होगा 
क्यूंकि तन्हाई उदासी खामोशी तो खुदा की उस नेमत की तरह हैं 
जो केवल इश्क करने वालों को ही नसीब होती है 
पर तुमने तो कभी इश्क किया ही नहीं
खुद से भी नहीं 
और जो खुद से इश्क नहीं कर सकता 
वो भला किसी और से इश्क़ कर सकता है क्या 
नहीं ना ...

इसलिए तुम कभी महसूस ही नहीं कर सकते 
वो तन्हाइयाँ 
वो खामोशियाँ
वो एक चुप 
जो भीड़ में भी तन्हा कर दे
जो बेवजह कहीं भी होठों की मुस्कुराहट का सबब बन जाये

वो ख़मोशी जो उस मसले हुए फूल की तरह होती है, जो खुद मिटकर भी महकता है 
ठीक वैसे ही जैसे एक जली हुई अगरबत्ती जो सुलगती तो है, मगर खुशबू के साथ 
जैसे सागर किनारे खड़े होकर भी लहरों का शोर, शोर सा सुनाई नहीं देता 
जानते हो क्यूँ... क्यूंकि कुछ खामोशियाँ ,तन्हाइयाँ शोर में भी खूबसूरत ही लगती है 
सुनो क्या तुमने भी कभी महसूस किया है उन खामोशीयों और तन्हाइयों को इस तरह .....

Thursday 29 August 2013

ख़याली पुलाव या एक वृक्ष, क्या है ज़िंदगी ?

ख़याली पुलाव कितने स्वादिष्ट होते है ना 
झट पट बन जाते है
इतनी जल्दी तो इंसटेंट खाना भी नहीं बन पाता 
मगर यह ख़याली पुलाव तो, 
जब तब, यहाँ वहाँ, कहीं भी आसानी से उपलब्ध हो जाते है 
बस एक वजह चाहिए होती है इन्हें पकाने की 
वो मिली नहीं कि पुलाव तैयार है
....................................................................

लेकिन क्या सचमुच ख़्याल, पुलाव की ही तरह होते है 
मुझे तो ऐसा लगता है, 
जैसे ख़्याल 
किसी पेड़ पर लगे पत्तों की तरह होते हैं 
आपका अपना अस्तित्व एक वृक्ष का रूप होता है 
और आपके ख़्याल उस वृक्ष की पत्तियाँ 
जब ख्यालों का कारवाँ बढ़ता है 
तब न जाने कितने ख़यालों के पंछी आकर
आपकी आँखों में अपना बसेरा बना लेते हैं 
और किसी चित्रपट पर चल रहे किसी चलचित्र की तरह 
दृश्य दर दृश्य एक के बाद एक ख़्याल बदलता चला जाता है 
फिर अचानक से एक वास्तविकता की आँधी आती है 
और अपने साथ उड़ा ले जाती है 
आपके ख़्वाबों और ख़्यालों के सारे पंछियों को 
 तब आँखें वीरान सी रह जाती है
ख़्यालों के पंछियों के घरौंदों से लदा वृक्ष 
पतझड़ के बाद पत्तों से रिक्त वृक्ष की तरह रह जाता है 
अकेला, उजाड़, सुनसान 
मगर मन में आस और आँखों में प्यास 
उस एक उम्मीद की किरण को मरने नहीं देती 
और फिर एक बार किसी नई चाहत की नमी पाकर 
ख्यालों का वृक्ष फिर उसी तरह हरा भरा होने लगता है 
जैसे 
बारिश के बाद आयी नई नई कोपलों की हरियाली 
शायद ज़िंदगी इसी को कहते हैं....

Thursday 25 July 2013

ऐसा तो ना था मेरा सावन ...


देखो ना सावन आने वाला है
यूं तो सावन का महीना लग गया है
मगर मैं भला कैसे मान लूँ कि सावन आगया है 
क्यूंकि प्रिय ऐसा तो ना था मेरा सावन 
जैसा अब के बरस आया है
  मेरे मन की सुनी धरती 
 तो अब भी प्यासी है, उस एक सावन की बरसात के लिए 
जिसकी मनोरम छवि अब भी 
रह रह कर उभरती है
मेरे अंदर कहीं 
जब मंदिरों में मन्त्रौच्चार से गूंज उठता था 
मेरा शहर 
बीलपत्र और धतूरे की महक से
महक जाया करता था मेरा घर 
वो आँगन में पड़ा करते थे 
सावन के झूले 
वो हरियाली तीज पर 
हाथों में रची हरी भरी मेंहदी की खुशबू 
वो अपने हाथो से बनाना राखियाँ 
वो एक कच्चे धागे से बंधे हुए  
अटूट बंधन
जाने कहाँ खो गया है अब यह सब कुछ  
अब कुछ है 
तो महज़ औपचारिकता
नदारद है 
वो अपनापन
जैसे सब बह गया इस साल
न अपने बचे, न अपनापन
तुम ही कहो ना प्रिय यह कैसा सावन 
जहां अब 
कहीं कोई खुशी दूर तक दिखायी नहीं देती  
अगर कुछ है 
तो वो है केवल मातम 
जहां अब बाज़ार में फेनी और घेवर की मिठाइयाँ नहीं 
बल्कि मासूम बच्चों के खाने में घुला जहर बिक रहा है
जहां अब सावन की गिरती हुई बूंदों से 
मन को खुशी नहीं होती  
बल्कि अपनों के खोने का डर ज्यादा लगता है
मेंहदी की ख़ुशबू अब 
खून की बू में बदल गयी है
सावन के झूले अब बच्चों की अर्थियों में बदल रहे है     
ऐसा तो ना था मेरा सावन, कभी ना था, जैसा अबके बरस दिख रहा है.... :(  


Saturday 20 July 2013

कविता ...एक कोशिश


कुछ मत सोचो 
न कोई रचना, ना ही कविता
मैं यह सोचूँ 
काश के तुम बन जाओ कविता 
जब चाहे जब तुमको देखूँ 
जब चाहे जब पढ़ लूँ तुमको 
ऐसी हो रसपान कविता 

हो जिसमें चंदन की महक पर  
लोबान सी महके वो कविता 
हो जिसमें गुरबानी के गुण 
रहती हो गिरजा घर में वो, 
प्रथनाओं में लीन कविता 

सपनीली आँखों में चमके 
तारों सी रोशन हो कविता 
हो उदास अगर कोई भी मन 
बन मुस्कान उन अधरों पर  
देखो फिर मुसकाये वो कविता 

भूख से रोते बच्चे को देखकर  
झट रोटी बन जाये कविता 
माँ की लोरी में घुलकर फिर   
मीठी नींद सुलाये कविता  
बेटी सी मासूम कविता 
पिता का मान सम्मान कविता 
कहलाए वो तेरी भी और मेरी भी बन जाये कविता....

Friday 21 June 2013

क्या यही प्यार है ?


तुम, तुम प्यार की बात कर रहे हो 
सुनो तुम्हारे मुंह से यह प्यार व्यार की बातें अच्छी नहीं लगती (जानेमन)  
तुम जानते भी हो प्यार होता क्या है ? 
प्यार ज़िंदगी में केवल एक बार होता है दोस्त 
बारबार नहीं,   
तो भला फिर तुम्हें 
प्यार करने का हक़ ही कहाँ रह जाता है
प्यार करने वाले कभी दो नावों में सवार नहीं होते 
प्यार तो वो करते हैं जो अपनी जुबान के पक्के होते है 
तुम्हारी तरह फरेबी और मतलबी नहीं 
एक बे पेंदी के लोटे की तरह 
कि जब मन किया प्यार का दामन थम लिया 
और जब जी चाह ऐसे भुला दिया जैसे जानते ही नहीं ...
मगर प्यार, प्यार तो कोई मजबूरी नहीं है, 
प्यार तो ईश्वर की पूजा है, खुदा की इबादत है, 
ज़िंदगी का मक़सद है, आत्मा की शांति है 
पर फिर भी कभी तुमने अपनी ज़िंदगी और प्यार में से कभी  
अपने प्यार को नहीं चुना, एक पल के लिए भी नहीं,
जैसे वो प्यार नहीं पाप हो तुम्हारा  
जबकि, मैंने तो तुम्हें सदा अपने दिल की गहराइयों से चाहा, 
तुमसे प्यार किया, यहाँ तक के सब कुछ 
अपना मैंने तुम पर वार दिया न सिर्फ अपना तन,मन,धन 
अपितु अपने लिए अपने परिवार का प्यार, उनका विश्वास
सब कुछ, सिर्फ तुम्हारा साथ पाने के लिए 
मैंने उन सबको भूला दिया जिनकी वजह से आज मैं हूँ
मेरा वजूद है,      
पर बदले में तुमने मुझे क्या दिया 
विश्वास घात, दर्द, दूरियाँ, तन्हाइयाँ, 
पराया होने का एहसास 
माना कि प्यार में कोई शर्त नहीं होती (जाने तमन्ना) 
यह भी माना कि प्यार में, प्यार के बदले प्यार ही मिले 
यह भी ज़रूरी नहीं
मगर यह सब तभी तक ठीक और सही लगता है ना 
जब प्यार एक तरफा हो मगर हमारे बीच तो ऐसा नहीं था 
फिर तुम्ही कहो क्या यही प्यार है...    

Wednesday 19 June 2013

गंगा की व्यथा ....


मेरा नाम है गंगा
हाँ हूँ, मैं ही हूँ गंगा
वो गंगा
जिसे तुम ने
अपने सर माथे लगाया
बच्चों को मेरा नाम
लेले कर नहलाया,
जो कुछ भी मिला सकते थे
तुम, तुम ने मेरे आँचल
में वो सब कुछ मिलाया

न सोचा एक बार भी
मेरे लिए कि गंदगी
से मुझे भी हो सकती है
तकलीफ़, असहनिए पीड़ा
यह कहाँ का इंसाफ है
पाप तुम करो
और सज़ा मैं भुगतूँ ?
लेकिन फिर भी
मैं चुप रही...

मैंने आज तक कभी
कुछ न कहा
तुमने पूजा पाठ
और भक्ति के आडंबर
के नाम पर मुझे पल-पल छला
मैं चुप रही....
तुमने बीमारी से भरे शवों को
मुझ में घोला
मैं तब भी चुप रही...

यहाँ तक के तुम ने
मेरे जीवन, मेरे प्रवाह तक को
मुझ पर बांध बना-बना कर रोका
मैं तब भी चुप रही
कई बार मैंने तुम्हें
अपने संकेत दिये
कई बार चाह कि
तुम मेरी चुप्पी को समझो

मेरी पीड़ा को
स्वयं महसूस करो
चंद लोगों ने
शायद समझा भी मुझे
इसलिए गंगा सफाई अभियान भी चलाया
मगर हाये रह मंहगाई
उन चंद लोगों को भी
अमानुषता रही है खाई

मैं शिव के सर चढ़ कर बैठी
लेकिन एक दिन
उनके गले लग कर क्या रोली
तुम से सहा नहीं गया

अब जब फूटा है
मेरा कहर तो सहो,
सहना ही होगा तुमको
आज भुगतनी ही होगी
तुम्हें भी वही पीड़ा
जो आज तक तुम
मुझे देते आए हो

माना कि मैं माँ हूँ
मगर इसका अर्थ, यह तो नहीं
कि तुम अपने कुकर्मों से
मेरा अस्तित्व ,
मेरा वजूद ही मिटा डालो
मत भूलो अगर मैं एक माँ होने के नाते
तुम्हें जन्म दे सकती हूँ
तुम्हारे पापो को
अपने आँचल से धो सकती हूँ

तो मैं ही तुम्हें
पल भर में
घर से बेघर भी कर सकती हूँ
हाँ हूँ मैं गंगा,
जो गर चाहूँ तो
भगवान को भी
अपने जल से पवित्र कर दूँ
और जो ना चाहूँ
तो हज़ारो ज़िंदगियों को

पल भर में यूं ही मसल के खाक कर दूँ
अब भी कह रही हूँ मैं
चेंत सको तो चेंत जाओ
माँ के अंचाल में यूं जहर ना मिलाओ....           

Tuesday 11 June 2013

फूल गुलाब का ....


"फूल गुलाब का लाखों में हजारों में 
चेहरा जनाब का" 

कितना आसान होता है ना, किसी को गुलाब कह देना
निर्मल, कोमल, खुशबू से लबरेज़ महकता हुआ गुलाब
किसी के होंटों गुलाब, तो किसी के गालों पर गुलाब
और हो भी क्यूँ ना
आखिर यूं हीं थोड़ी न फूलों का राजा कहलाता है गुलाब
मगर किसी को गुलाब की उपमा से नवाज़्ते वक्त
हम कभी क्यूँ नहीं सोच पाते
उसकी सुंदरता और उसकी कोमलता के पीछे छिपे
उसके दर्द को, उन काँटों की चुभन को
जिसके बीच दिन रात रहकर भी
तिल तिल कर बढ़ती है एक कोमल कली
और बनती है एक खूबसूरत गुलाब
जिसे देखने के बाद हर मन मचल ही जाता है उसे पाने के लिए
इन दिनों मेरे घर में भी खिल रहे हैं, अनगिनत गुलाब
मगर कल उन्हें पाने की चाह में
मैंने महसूस की उसके काँटों की चुभन
तब यह ख्याल आया कि
हर मुस्कुराहट के पीछे एक दर्द छिपा होता है
चहरे और स्वभाव से जो इंसान खुश मिजाज दिखाई दे
अक्सर वही इंसान अंतस से बेहद दुखी होता है
अर्थात जो आँखें देखती है वो हमेशा सच नहीं होता
यूं तो समंदर किनारे भी बहुत शोर होता है
लेकिन समंदर की ख़ामोशी भी अक्सर हमें सुनाई नहीं देती...
जैसे यह है तो एक कविता मगर कविता सी सुनाई नहीं देती :-)

खैर छोड़िए जनाब जो मन में आया और जो महसूस किया वो लिख दिया अब कविता बनी या नहीं इस से क्या फर्क पड़ता है आप सब मज़ा लीजिये इस गीत का.... :))
  

    

Sunday 9 June 2013

इसी का नाम है ज़िंदगी ...


पल पल बदलते रहने का नाम है ज़िंदगी
आज सुबह तो कल शाम है ज़िंदगी

अपने ग़म में तो सभी जीते है
दूसरों के ग़म को जीने का नाम है ज़िंदगी

खूद अपनी खुशी में हंस लिए तो क्या बड़ा किया
रोते हुए बच्चे को हँसाने का नाम है ज़िंदगी

चढ़ते सूरज के साथ आगाज़ का नाम है ज़िंदगी
नित नए पल मिलने वाले तोहफ़े का नाम है ज़िंदगी

सांस तो सभी ले रहे हैं जीने के लिए,
फकत सांस लेते रहने का नाम ना है ज़िंदगी

यूं तो गुजरते कारवां सी भी है यह ज़िंदगी
मगर तेरे नाम के बिना जो गुज़र जाये वो बियाबाँ है ज़िंदगी

भले ही तेरी मूहोब्बत के फूल न सही इसमें
मगर तेरी यादों का दरख़्त है यह ज़िंदगी

गुज़र जाने का नाम ही है ज़िंदगी
गुज़र ही जाये एक दिन,

मगर बिन प्यार किए जो गुज़र जाये तो वो हराम है ज़िंदगी
क्यूंकि केवल प्यार का ही तो दूसरा नाम है ज़िंदगी

पल्लवी सक्सेना    

Wednesday 5 June 2013

रेत का दर्द...


 समंदर का दर्द तो सभी महसूस करते है
लेकिन क्या कभी किसी ने
उसके किनारे पड़ी रेत के दर्द को भी महसूस किया है
शायद नहीं,
क्यूंकि लोगों को तो अक्सर
सिर्फ आँसू बहाने वालों का ही दर्द दिखाई देता है
मौन रहकर जो दर्द सहे
वह भला कब किसको दिखाई दिया है
कुछ वैसा ही हाल है उस रेत का 
जो समंदर के किनारे पड़ी रहकर
उसके सारे आँसुओं को दिन रात पीकर भी मौन रहा करती है
मगर फिर भी उसके बारे में कभी कोई कुछ नहीं सोचता
लोगों को अगर कुछ दिखाई देता है
तो केवल उस समंदर की खामोशी
रेत का मौन तो किसी को कभी ना दिखाई देता है
और ना ही कभी किसी ने उसकी खामोशी को सुनने की कोशिश ही की होगी कभी
 अरे ज़रा तो सोचो ओ मुसाफिरों
जो खुद किसी के आँसुओं को अपने अंदर जज़्ब करते-करते
खुद खोखली हो चुकी है
वो भला किसी के सपनों के महलो को कैसे एक मजबूती दे सकती है
मगर फिर भी लोग उसके अंचल में गढ़ते हैं अपने सपनों के महल
और जब तक साथ देता है उसका सबल वो बनाने देती है अपने ऊपर वो महल
मगर संमदर की एक लेहर आकर जैसे उसके दर्द को जागा जाती है
और उस पर बना वो सपनों का महल टूट कर बिखर जाता है  
आदत से मजबूर इंसान बड़ी बेरहमी से
उसके बचे हुए अंशों पर अपने पैरों की ठोकर से वार करता हुआ निकल जाता है
बिना एक बार भी यह सोचे
कि कुछ देर पहले यही वो रेत थी
जिसने उसे अपने सपनों को कुछ पल के लिए ही सही
गढ़ने का ,उसे साकार रूप में देखने का एक मौका दिया था...    

Saturday 25 May 2013

ज़िंदगी की सारी खुशियाँ जैसे मौन हो कर रह गयी...

ज़िंदगी की सारी खुशियाँ जैसे मौन हो कर रह गयी
वो छोटे-छोटे खुशनुमा पल
वो गरमियों की छुट्टियों में चंगे अष्टे खेलना
वो रातों को सितारों की चादर तले देखना
वो करना बात कुछ आज की, कुछ कल के सपनों को देखना

वो लगाना आँगन में झाड़ू और पानी का फिर फेंकना
प्यासे पेड़ों को पानी दे, वो पत्थरों पर खींच के खांचा
फिर लंगड़ी-लंगड़ी खेलना
वो कैरी का पना
वो पुदीने की चटनी
वो भर भर उंगली से चाटना

वो नानी के घर आँगन तले नीबू का रस निकालना
वो बना के शिकंजी झट शक्कर उसमें फिर घोलना
वो गन्ने का रस
वो जलजीरे के मटके
वो छागल का पानी
वो ठेले पे बिकते थे खीरे के टुकड़े
यूं लगते थे जैसे हो हीरे के टुकड़े
वो माँ का, आँचल से पसीना पोंछना

ज़िद कर-कर के खाना, वो मटके की कुल्फी
वो घड़ी-घड़ी शरबत बना के पीना
वो रसना
वो रूहफ़्ज़ा
वो शर्बत-ए-आजम
वो ठंडी बर्फ से फिर कॉफी बनाना

मगर अब ना नानी का घर है
क्यूंकि कुछ न कुछ सीखने की फिकर है
न रहा शर्बत तो क्या,? कोल्ड ड्रिंक्स क्या भला शर्बत से कम है!!!
चटनी का क्या है, सॉस जो यहाँ है।

माँ के आँचल से चेहरा छिला है।
वेट टिशू भला किस मर्ज की दवा है।
आइसक्रीम भला किसे कब बुरा लगा है।
पर मटके न जाने कब से बेधुला है।

गर्मी बहुत है कि खेलना मना है
इसलिए शायद
यह वीडियो गेम और अब आई पेड चला है।
लगता है अब तो ऐसे, जैसे घर में हिन्दी बोलना भी गुनाह है :-)
सच इस सब में जैसे ज़िंदगी ही गुम हो के रह गयी
के यूं लगता है अब तो जैसे
ज़िंदगी की सारी खुशियाँ मौन हो कर रह गयी ... 

Tuesday 12 March 2013

बारिश और मैं ....

आज क्या लिखूँ कि मन उलझा-उलझा सा है रास्ते पर चलते हुए जब छतरी के ऊपर गिरती पानी की बूँदें शोर मचाती है तो कभी उस शोर को सुन मन मयूर मचल उठता है और तब मेरे दिल से निकलता है बस एक यही गीत....
"रिमझिम गिरे सावन, मचल-मचल जाये मन,
 भीगे आज इस मौसम,लागि कैसी यह अगन" 


यूं तो यह बारिश का मौसम मेरा सबसे ज्यादा पसंदीदा मौसम है,
क्यूंकि मुझे बारिश में भीगना बहुत पसंद है
वह घर की बालकनी में हाथ बढ़ाकर गिरती हुई बूंदों को महसूस करना 
मुझे तो यूं लगता है 
जैसे बारिश भी अपना हाथ बढ़ा रही है मेरी ओर
कि आओ मुझे छू लो,
मेरे साथ झूम लो गा लो 
ठीक किसी हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह 
घर के आँगन में जाकर गोल-गोल घूमना 
गड्ढों में भरे पानी में "छई छपा छई, छपाके छाई" 
की तर्ज़ पर छपाक छपाक खेलना 
कितना बचकाना सा लगता है न, अब यह सब, 
लेकिन यही तो वो यादें हैं जिनमें सभी का बचपन ज़िंदा है 
हर वो बच्चा ज़िंदा है जो हर इंसान के बूढ़ा हो जाने पर भी 
कहीं न कहीं उसके दिल के किसी कोने में छुप कर बैठा होता है 
जिसे हर कोई ज़िंदा रखना तो चाहता है 
मगर कुछ सामाजिक बंधनों के कारण उसे सामने नहीं ला पाता 
और देखते ही देखते कितना कुछ बदल जाता है 
यूं तो ज़िंदगी के हर पल में एक ध्वनि है, एक सुर है, एक संगीत है 
मगर यह ज़रूरी नहीं कि हमें हर बार वो संगीत अच्छा ही लगे 
कई बार यूं भी होता है 
जब मन उस संगीत से परेशान हो कानों पर हाथ रखकर  
उसे अनसुना कर देना चाहता है 
मगर प्रकृति ने कब किसकी सुनी है 
वो तो उस साथी की तरह है जो हमें कभी अकेला नहीं छोड़ती 
चाहे ग़म हो या खुशी, हम चाहें या ना चाहे, 
एक वही तो है जो पल-पल साथ निभाती चलती है ज़िंदगी का,
कभी महसूस किया है क्या 
अकेली सड़क पर साथ चलने वाले पेड़ों, रास्तों, पगडंडियों 
और आकाश के साथ-साथ आते जाते वाहनों की आवाजाही
 फिर भी दूर तलक फैली खामोशी 
जिसमें सिर्फ सुनाई देती है गिरती हुई बारिश की पदचाप
जैसे कोई साथ साथ चल रहा हो हमारे 
मगर जब मुड़कर देखो तो दूर तक कोई नज़र नहीं आता  
लेकिन फिर भी मुझे वो यह एहसास दिलाती है।
ज़िंदगी एक ख़मोश सफर नहीं 
क्यूंकि मैं हूँ तुम्हारे साथ अब भी और तुम्हारे बाद भी 
तुम्हारे अपनों का ख़्याल रखने के लिए.... 

Saturday 9 March 2013

नारी मन....


यूं तो कहने को महिला दिवस है
लेकिन क्या फायदा ऐसे दिवस का जो महज़ कहने को आता है
और आकर यूं ही चला जाता है
ना नारी ही नारी का सम्मान करती है यहाँ
और न ही पुरुष ही करता है
सब भक्षण ही करना चाहते है
कोई संरक्षण करना नहीं चाहता कभी
वैसे तो मैं, अर्थात मैं नारी अपने आप में ही सम्पूर्ण हूँ
इतनी सम्पूर्ण कि मैं अगर चाहूँ तो एक ही झटके में बदल सकती हूँ
इस संसार का भूत, भविष्य और वर्तमान
मगर करती नहीं हूँ मैं ऐसा
क्या करूँ आदत से मजबूर हूँ ना,
इसलिए सदा खुद से पहले तुम्हारे बारे में सोचती हूँ
तुम खुश रहो और सफलता के साथ-साथ एक स्वस्थ एवं दीर्घ आयु जियो
बस यही एक कामना तो किया करती हूँ मैं दिन रात
मगर यह क्या
तुम ने तो मेरे इस रूप को, मेरी कमजोरी समझ लिया
हे नादान पुरुष तुम क्यूँ भूल गए जिस से तुम जन्में हो
वो अगर तुम्हें जन्म देकर तुम्हारा भरण, पोषण और रक्षण कर सकती है
तो वक्त आने पर वही तुम्हारा भक्षण भी कर सकती है
मत भूलो जो मौन है वो कमजोर नहीं
इसलिए किसी को इतना भी मत सताओ और न झुकाओ
कि विपरीत वार में वो तुम्हें कहीं का ना छोड़े
और तुम आसमान से गिरे खजूर में अटके की भांति
धरती पर पड़े क्षत विक्षत नज़र आओ
शुक्र करो कि मैंने छोड़ी नहीं है, अब तक अपनी कुछ आदतें
कि अब भी एक उम्मीद बाकी है मेरे मन में तुम्हारे प्रति
क्यूंकि जन्म से तो कोई बुरा नहीं होता 
न स्त्री, न पुरुष
यह तो वक्त और हालात हैं, जो इंसान को नासमझ बना दिया करते है
इसलिए शायद नारी भी स्वयं नारी की दुश्मन हो जाती है कभी-कभी  
लेकिन नादानी तो सभी से हो सकती है 
क्यूंकि हम इंसान तो है ही
गलतियों का पुतला
मगर वो कहते हैं न गलतियाँ माफ की जा सकती है
मगर गुनाह नहीं,
इसलिए मेरे चेहरे की सोम्यता और शांति की परीक्षा न लो  
क्यूंकि शांति हमेशा संतोष नहीं देती
कई बार वही शांति तूफान से पहले की शांति का रूप भी हो सकती है...

Tuesday 29 January 2013

न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है....

न जाने माँ इतनी हिम्मत रोज़ कहाँ से लाती है
के हों कितने ही गम पर वो सदा मुसकुराती है
हर रोज़ कड़ी धूप के बाद चूल्हे की आग में तपती  है
मगर सुबह खिले गुलाब सी नज़र आती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

खुद पानी पीकर गुज़र करती है, मगर हमें खिला के सुलाती है
अगर न हो घर में कुछ तो रुई के फ़ाहे को घी का नाम दे बच्चों को बहलाती है
खुद भूखे पेट सोकर भी वो हमे खिलाती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

अंदर ही अंदर कोयले सी सुलगती-जलती है
मगर हर बार ठंडी फुहार सी नज़र आती है
जो हमेशा केवल प्यार बरसाती है
जो गम और खुशी में सदा ही मुसकाती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है

यूं  तो रोज़ देती है हौंसला मगर खुद अंदर ही अंदर घुली जाती है
मगर पिता और परिवार के समीप एक सशक्त ढाल सी नज़र आती है
आज भी थामकर उंगली वो सही राह दिखा जाती है
इसलिए शायद जीवन की पाठशाला का पहला सबक केवल माँ ही पढ़ती है
न जाने माँ इतनी हिम्मत हर रोज़ कहाँ से लाती है....      

Sunday 20 January 2013

लो बीत गया फिर, एक और साल ....

लो हर बार की तरह बीत गया एक और साल,
फिर एक बार आया है नया साल 
मगर 
कुछ भी तो नहीं बदला मेरी ज़िंदगी में, नया जैसा तो कुछ हुआ ही नहीं कभी,
यूं लगता है जैसे 
बस एक वही साल आकर ठहर सा गया है, मेरी ज़िंदगी में कहीं
कि जिसमें हम मिले थे कभी
तब से अटकी हूँ मैं बस उसी एक साल में, पता है क्यूँ ?
क्यूंकि उस एक साल में ही कुदरत ने जैसे मुझे
ज़िंदगी के सारे मौसम एक साथ ही दे दिये थे, ताउम्र गुज़ारने के लिए,
लेकिन देखो न, केवल पतझड़ को छोड़कर
मेरा साथ किसी मौसम ने दिया ही नहीं कि आज भी
हम राही बन साथ है वो मेरे,
साथी मेरे 
प्यार का भी क्या कमाल मौसम होता है न,
कि गुलाब ही नहीं, बल्कि जंगली फूल तक खूबसूरत नज़र आने लगते है
अधरों पर नित नये गीत स्वतः ही सजने लगते है
ज़िंदगी इतनी खूबसूरत सी नज़र आती है कि जैसे 'जन्नत' अगर कहीं है
तो बस वह यहीं है 
मगर किसे पता होता है कि ज़िंदगी के यह चार पल 
किसी जादुई फरेब से कम नहीं होते 
जैसे किसी जादूगर ने अपने जादू से एक खूबसूरत दुनिया का निर्माण किया  
और हकीकत से सामना होते ही जैसे प्यार का सारा जादू छू सा हो जाता है
और हम अचानक ही आ गिरते हैं हकीकत के धरातल पर
जैसे मुझ संग तुम्हारा प्यार
और बस गुनगुनाते रह जाते यह गीत के
प्यार के लिए, चार पल कम नहीं थे, कभी तुम नहीं थे कभी हम नहीं थे .....:)
     

Saturday 5 January 2013

रेत सा रिश्ता ...


क्यूँ रिश्ता मुझसे अपना तुमने रेत सा बनाया 
क्यूँ आते हो तुम लौट-लौटकर मेरी ज़िंदगी में गये मौसम की तरह 
जानते हो ना, कभी-कभी खुश गवार मौसम भी जब लौटकर आता है 
तो कुछ शुष्क हवायें भी अपने साथ लाता है 
जो लहू लुहान कर दिया करती है न सिर्फ तन बल्कि मन भी  
और तब तो तुम्हारे प्यार की यादों का 
कोमल एहसास भी भर नहीं पाता उन ज़ख़्मों को 
 तब ऐसा महसूस होता है मुझे, जैसे तुमने ही ठग लिया है मुझे
मानो  
 मैं स्तब्ध सी खड़ी हूँ और कोई आकर मेरा सब कुछ लिये जा रहा है मेरे हाथों से 
खुदको इतना जड़ हताश और निराश आज से पहले कभी नहीं पाया मैंने
शायद इसलिए तुमसे बिछड्ने के ग़म ने ही मुझे बेजान सा कर दिया है
की एक खामोशी सी पसरा गयी है मेरे अंतस में
मगर यह कैसी विडम्बना है हमारे प्यार की
कि मुझे इतना भी अधिकार नहीं  
 कि मैं रोक सकूँ उसे   
यह कहकर कि रुको यह तुम्हारा नहीं, जिसे तुम लिये जा रहे हो अपने साथ  
क्यूंकि सच तो यह है कि अब तो मुझसे पहले उसका अधिकार है तुम पर
तुम तो अब मेरी यादों में भी उसकी अमानत बनकर आते हो 
तो किस हक से कुछ भी कहूँ उससे    
इसलिए खड़ी हूँ पत्थर की मूरत बन यूँ ही, अपने हाथों की हथेलियों को खोले 
और वो लिये जा रहा है मेरा सर्वस्व,
यूँ लग रहा है मुझे, जैसे तुम रेत बनकर फिसल रहे हो मेरे हाथों से 
और वो मुझे चिढ़ाता हुआ सा लिए जा रहा है तुमको अपने साथ  
मुझ से दूर बहुत दूर....
फिर कभी न मिलने के लिये   
यह कहते हुए कि मेरे रहते भला तुमने ऐसा सोच भी कैसे
 कि यह तुम्हारा हो सकता है  
तुम से पहले अब  
यह तो मेरा है, मेरा था, और मेरा ही रहेगा हमेशा....