Tuesday 12 March 2013

बारिश और मैं ....

आज क्या लिखूँ कि मन उलझा-उलझा सा है रास्ते पर चलते हुए जब छतरी के ऊपर गिरती पानी की बूँदें शोर मचाती है तो कभी उस शोर को सुन मन मयूर मचल उठता है और तब मेरे दिल से निकलता है बस एक यही गीत....
"रिमझिम गिरे सावन, मचल-मचल जाये मन,
 भीगे आज इस मौसम,लागि कैसी यह अगन" 


यूं तो यह बारिश का मौसम मेरा सबसे ज्यादा पसंदीदा मौसम है,
क्यूंकि मुझे बारिश में भीगना बहुत पसंद है
वह घर की बालकनी में हाथ बढ़ाकर गिरती हुई बूंदों को महसूस करना 
मुझे तो यूं लगता है 
जैसे बारिश भी अपना हाथ बढ़ा रही है मेरी ओर
कि आओ मुझे छू लो,
मेरे साथ झूम लो गा लो 
ठीक किसी हिन्दी फिल्म की नायिका की तरह 
घर के आँगन में जाकर गोल-गोल घूमना 
गड्ढों में भरे पानी में "छई छपा छई, छपाके छाई" 
की तर्ज़ पर छपाक छपाक खेलना 
कितना बचकाना सा लगता है न, अब यह सब, 
लेकिन यही तो वो यादें हैं जिनमें सभी का बचपन ज़िंदा है 
हर वो बच्चा ज़िंदा है जो हर इंसान के बूढ़ा हो जाने पर भी 
कहीं न कहीं उसके दिल के किसी कोने में छुप कर बैठा होता है 
जिसे हर कोई ज़िंदा रखना तो चाहता है 
मगर कुछ सामाजिक बंधनों के कारण उसे सामने नहीं ला पाता 
और देखते ही देखते कितना कुछ बदल जाता है 
यूं तो ज़िंदगी के हर पल में एक ध्वनि है, एक सुर है, एक संगीत है 
मगर यह ज़रूरी नहीं कि हमें हर बार वो संगीत अच्छा ही लगे 
कई बार यूं भी होता है 
जब मन उस संगीत से परेशान हो कानों पर हाथ रखकर  
उसे अनसुना कर देना चाहता है 
मगर प्रकृति ने कब किसकी सुनी है 
वो तो उस साथी की तरह है जो हमें कभी अकेला नहीं छोड़ती 
चाहे ग़म हो या खुशी, हम चाहें या ना चाहे, 
एक वही तो है जो पल-पल साथ निभाती चलती है ज़िंदगी का,
कभी महसूस किया है क्या 
अकेली सड़क पर साथ चलने वाले पेड़ों, रास्तों, पगडंडियों 
और आकाश के साथ-साथ आते जाते वाहनों की आवाजाही
 फिर भी दूर तलक फैली खामोशी 
जिसमें सिर्फ सुनाई देती है गिरती हुई बारिश की पदचाप
जैसे कोई साथ साथ चल रहा हो हमारे 
मगर जब मुड़कर देखो तो दूर तक कोई नज़र नहीं आता  
लेकिन फिर भी मुझे वो यह एहसास दिलाती है।
ज़िंदगी एक ख़मोश सफर नहीं 
क्यूंकि मैं हूँ तुम्हारे साथ अब भी और तुम्हारे बाद भी 
तुम्हारे अपनों का ख़्याल रखने के लिए.... 

Saturday 9 March 2013

नारी मन....


यूं तो कहने को महिला दिवस है
लेकिन क्या फायदा ऐसे दिवस का जो महज़ कहने को आता है
और आकर यूं ही चला जाता है
ना नारी ही नारी का सम्मान करती है यहाँ
और न ही पुरुष ही करता है
सब भक्षण ही करना चाहते है
कोई संरक्षण करना नहीं चाहता कभी
वैसे तो मैं, अर्थात मैं नारी अपने आप में ही सम्पूर्ण हूँ
इतनी सम्पूर्ण कि मैं अगर चाहूँ तो एक ही झटके में बदल सकती हूँ
इस संसार का भूत, भविष्य और वर्तमान
मगर करती नहीं हूँ मैं ऐसा
क्या करूँ आदत से मजबूर हूँ ना,
इसलिए सदा खुद से पहले तुम्हारे बारे में सोचती हूँ
तुम खुश रहो और सफलता के साथ-साथ एक स्वस्थ एवं दीर्घ आयु जियो
बस यही एक कामना तो किया करती हूँ मैं दिन रात
मगर यह क्या
तुम ने तो मेरे इस रूप को, मेरी कमजोरी समझ लिया
हे नादान पुरुष तुम क्यूँ भूल गए जिस से तुम जन्में हो
वो अगर तुम्हें जन्म देकर तुम्हारा भरण, पोषण और रक्षण कर सकती है
तो वक्त आने पर वही तुम्हारा भक्षण भी कर सकती है
मत भूलो जो मौन है वो कमजोर नहीं
इसलिए किसी को इतना भी मत सताओ और न झुकाओ
कि विपरीत वार में वो तुम्हें कहीं का ना छोड़े
और तुम आसमान से गिरे खजूर में अटके की भांति
धरती पर पड़े क्षत विक्षत नज़र आओ
शुक्र करो कि मैंने छोड़ी नहीं है, अब तक अपनी कुछ आदतें
कि अब भी एक उम्मीद बाकी है मेरे मन में तुम्हारे प्रति
क्यूंकि जन्म से तो कोई बुरा नहीं होता 
न स्त्री, न पुरुष
यह तो वक्त और हालात हैं, जो इंसान को नासमझ बना दिया करते है
इसलिए शायद नारी भी स्वयं नारी की दुश्मन हो जाती है कभी-कभी  
लेकिन नादानी तो सभी से हो सकती है 
क्यूंकि हम इंसान तो है ही
गलतियों का पुतला
मगर वो कहते हैं न गलतियाँ माफ की जा सकती है
मगर गुनाह नहीं,
इसलिए मेरे चेहरे की सोम्यता और शांति की परीक्षा न लो  
क्यूंकि शांति हमेशा संतोष नहीं देती
कई बार वही शांति तूफान से पहले की शांति का रूप भी हो सकती है...