वर्तमान हालातों को मद्दे नज़र रखते हुए जब मैंने मेरी ही एक सहेली से फोन पर बात की और तब जब उसने यह कहा कि यार चिंता और फिक्र क्या होती है यह आज समझ आरहा है मुझे...जब हम बच्चे थे तब तो हमेशा यही लगता था कि माँ नाहक ही इतना चिंता करती है मेरी, सिर्फ इसलिए क्यूंकि मैं एक लड़की हूँ। मगर आज जब खुद मेरे एक बेटी है। तो समझ आता है कि क्यूँ किया करती थी माँ मेरी इतनी चिंता। बस उसी आपसी बातचीत से मन में उभरे कुछ विचार...
एक बेटी से बहन, बहन से वधू और वधू से माँ बनने तक के सफर में
कितना कुछ अनुभव कराया है इस वक्त ने मुझे
हर कदम पर, एक नया रिश्ता
रोज़ कोई नयी चुनौती या त्याग लिया आता है।
जीवन के इन अनुभवों से झुझते हुए कई बार बहुत कुछ सोचा है मैंने,
बहुत कुछ सीखा है मैंने,
मैं कौन ?
मैं एक स्त्री
मैं एक स्त्री
बहुत ही साधारण सी, एक आम सी स्त्री
एक आम इंसान,
एक ऐसी इंसान जिसे कभी किसी युग में इंसान समझा ही नहीं गया
जिसने समझा केवल एक वस्तु ही समझा
जब जिसकी जैसी इच्छा हुई
तब उसने इस वस्तु का वैसा ही इस्तमाल किया।
कभी सीता बनाकर दर दर की ठोकरें खाने भेज दिया,
तो कभी द्रोपदी बनाकर दाव पर लगा दिया,
भरी सभा में अपमानित होने के लिए
तब से आज तक
सबने मुझे एक भोग की वस्तु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझा
कभी किसी ने मेरा मन पढ़ने की चेष्टा नहीं की
सभी ने देखा तो केवल तन देखा
कभी गरीब के घर जन्मी
तो परिवार चलाने के लिए मैंने खुद अपना तन बेंचा
मगर अपनी आत्मा नहीं बेची कभी
अमीर के घर जन्मी तो,
दहेज की आग में जलायी गयी
और
एक सामान्य परिवार में जन्म लेने पर भी
कभी मुझे अपनों ने छला
तो कभी बाहर घूम रहे, इंसान की खाल में छिपे भेड़ियों ने
कुछ इस तरह देखा उन्होंने मुझे
कि देखने मात्र से ही लज्जित हो गई मैं,
यूं जैसे किसी भूखे के सामने पड़ा हुआ भोजन
हर रोज़ खड़े होते है
हर गली, हर नुक्कड़ पर कुछ इंसान से दिखने वाले यह भेड़िये
मौके की तलाश में, नौचने को मेरा तन
तब मन ही मन करती हूँ मैं रोज़ ही एक निश्चय
हर रोज़ लेती हूँ एक प्रण
कि अपनी संतान को न दूँगी मैं यह भय
निडर बनाऊँगी मैं उसे,
इतना निडर कि नौच सके वो आंखे
उन वासना में लिप्त भूखे भेड़ियों की
जिन्हें सदा औरत में केवल शरीर ही दिखाई देता है
इंसान नहीं
मगर जब माँ का ह्रदय देखता है
हर स्त्री के प्रति होता घिनौना व्यवहार
तो हार देता है वह अपना होंसला
और सोचता है
मैं एक स्त्री, मुझे तो वादा करने
या स्वयं अपने लिए कोई निश्चय करने का भी अधिकार नहीं है यहाँ
फिर भला मैं कैसे दे पाऊँगी
तुझे मेरे मन की कली
एक सभ्य और सुरक्षित समाज का आँगन
तुझे एक महकता हुआ फूल बनने के लिए ...
बहुत ख़ूब
ReplyDeleteविडम्बना ही इस समाज की आज भी महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं है। आज ही खबर पड़ी एक अखबार में पिर सामूहिक दुष्कर्म के आरोपियों को हाइकोर्ट द्वारा फांसी पर बरकरार रखने की। बहुत असहजता लगती है।
ReplyDeleteबहुत अच्छे से परिस्थितियों को ब्यान किया है आपने
ReplyDeletebahut sundar dhang se nari vyatha ko ujagar kiya hai .
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-08-2014 को मंच पर चर्चा - 1719 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
bahut gehre bhav........
ReplyDeleteapani santaan ko nahin dungi yah bhay ... sundar ! sarthak rachana !
ReplyDeleteबहुत सटीक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteहालत बद से बदतर ही हैं :(
ReplyDeleteसार्थक एवं सशक्त प्रस्तुति
ReplyDeleteहालात तो पहले भी ऐसे ही थें और आज भी पर हम इसके लिये कुछ कर ही रहे हैं। क्या हमारी लडकियां आत्म रक्षा के लिये प्रशिक्षित हैं, क्या वे आत्मनिरभर हैं।
ReplyDeleteक्या समाज ुलके लिये कुछ करने को तैयार है
समाज में मनु संतान जिस तरह निम्नता की उंचाइयां छू रहे हैं...उसे देख कर यह व्यथा लाजिमी है.
ReplyDeleteमन को छूती हैं आपकी पंक्तियाँ ... पर क्या कोई सुधार होगा ...
ReplyDeletesach me aaj bhi jab ki duniya me har jagah stree ka adhikar hi tab bhi aurat ke roop me usko hamesha hi chunotiyon ka samna karna padta hi
ReplyDeleteSend Cake Online Order Delivery in India
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