अजीब दास्तान है ये कहां शुरू कहां खत्म
ये मंज़िलें हैं कौन सी न वो समझ सके न हम....
सच ज़िंदगी भी तो ऐसी ही है। ठीक इसी गीत की पंक्तियों की तरह एक कभी न समझ आनेवाली पहेली। एक लंबा किन्तु बहुत छोटा सा सफर, जिसकी जाने कब साँझ ढल जाये, इसका पता ही नहीं चलता। न जाने कितने भावनात्मक रास्तों से गुज़रता है यह ज़िंदगी का कारवां, लेकिन अंतिम पड़ाव आते-आते तक हाथ फिर भी खाली ही रह जाते हैं और दिल एकदम भरा-भरा...खुद का दिमाग ही जैसे दुश्मन बन जाता है और बार-बार डांट-डांट कर बस यही कहता है कि क्या पाया तुमने इंसान होकर? अरे तुम से अच्छे तो ये पंछी, नदियाँ, पवन के झोंके हैं। जानते हो क्यूँ? क्योंकि कोई सरहद न इन्हें रोके।
मगर तुम...तुम तो खुद अपनी ही बनाई हुई सरहदों में अटक कर रह गए। न आगे जा सके न पीछे हट सके। हमेशा तुमने बस अपने अहम को तुष्ट करने की ही सोची। कभी किसी के स्वाभिमान या मान-सम्मान के विषय में तो तुम सोच ही नहीं पाये। सोचते भी कैसे, इंसान जो ठहरे। लेकिन एक बात तो बताओ। आखिर इंसान है क्या? गलतियों का एक पुतला, जो ज़िंदगीभर गलतियाँ कर-कर के ही सीखता है किन्तु फिर भी गलतियाँ करना नहीं भूलता।
कुछ महानुभव गलती छोड़ गुनाह कर बैठते हैं और कहते हैं इसमें भी मेरी गलती कहाँ है। क्योंकि इस दुनिया का कर्ताधर्ता तो वो ऊपरवाला है ना। कहते हैं उसकी मर्ज़ी के बिना तो एक पत्ता तक नहीं हिलता। यदि यही सच है तो फिर गुनहगारों से गुनाह करवानेवाला भी तो वही हुआ ना। लेकिन वो भी शायद इसी जुमले को सच मानता है कि ‘करे कोई भरे कोई’ यानि कि इंसान से गुनाह करवाए वो ऊपरवाला और सज़ा भी वही दे। यानी यह तो वही बात हुई कि ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’ और तू (इंसान) मेरे हाथ की कठपुतली। जिसे मैं जब चाहूँ, जहां चाहूँ, जैसे चाहूँ, अपने इशारों पर नचा सकता हूँ। अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक अपने मनोरंजन के लिए कुछ भी करवा सकता हूँ। फिर चाहे तुम उसे गलती का नाम दो या गुनाह का, पाप कहो या पुण्य तुम्हारी मर्ज़ी। मगर तुम सब अक्ल के अंधे करोगे वही जो मैं चाहूँगा।
खुद ही सोचो कितनी अजीब बात है ये कि जिस वस्तु को पाने के लिए तुम रात-दिन एक कर देते हो, जिस एक चीज़ को पाने के लिए मेरे सामने सदा रोते-बिलखते गिड़गिड़ाते रहते हो, यहाँ तक कि उस चीज़ को पाने के लिए तुम भिखारी तक बन जाने से भी ज़रा नहीं हिचकिचाते और जब मैं तुम पर दया करके तुम्हें तुम्हारी वही प्रिय वस्तु या चीज दे देता हूँ तो अगले ही पल तुम्हारे मन से उस चीज़ को पाने की खुशी यकायक जाने कहाँ लुप्त हो जाती है। यह देख कभी-कभी तो मैं स्वयं भी सोच में पड़ जाता हूँ कि यह ‘मानव मन भी कैसा विचित्र है जिस प्राप्य की आकांक्षा में जमीन-आसमान एक किया जाता है, वही प्राप्त होने पर तुच्छ क्यूँ लगता है। अनदेखी की अनुभूति क्यूँ देता है’।
फिर मुझे याद आता है कि एक इंसान कभी संतुष्ट ही कहाँ होता है। एक मनोकामना पूर्ण होने से पहले ही दूसरी जो जन्म ले लेती है। इसलिए तो मैं कभी तुम्हें पूर्ण संतुष्ट नहीं करता। क्योंकि मैं जितना भी दूँ तुम को सदा कम ही लगता है। लेकिन तुम यह नहीं जानते जीवन की यही कमी तुम्हारे जीवन की निरंतरता बनाए रखने की बूटी है। क्योंकि यदि इंसान संतुष्ट हो गया तो अपने जीवन पथ पर कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा....और यदि ऐसा हुआ तो ज़िंदगी, ज़िंदगी ही कहाँ रह जाएगी! क्योंकि बहते हुए पानी को भी यदि रोक दिया जाये तो उसमें से भी बदबू आने लगती है यह तो फिर भी ज़िंदगी है...सोचो ज़रा यह रुक गयी तो फिर इस संसार का क्या होगा....
कौन समझ सका है भला इस दासतान को!?
ReplyDeleteयह एकांकी आध्यात्म और दर्शन का संयुक्त भावावेश है। बहुत ही विचारवान सृजन है।
Deleteयह मानव मन भी कितना विचित्र है ...........सच में , पल पल विस्मय से भरा हुआ , खुद ही खुद को चमत्कृत कर देता है , कमाल का प्रवाहमयी लिखा है जी , बहुत अच्छे । देखिए इस बार हम एकदम टाईम से प्रकट हुए हैं :) :)
ReplyDeleteक्या बात है 'झा' जी... आज तो गजबही कर दिये आप ...:) :)
Deleteकुछ तो अप्राप्य रह जाता है, जो हमें गतिमान रखता है।
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteसमग्र जीवन ज्ञान है आपकी यह पोस्ट. हर बिंदु से सहमत हूँ.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteउम्दा लेख |
ReplyDeleteदिमाग जो नई बातों को ग्रहण करता रहता है वही कुछ न कुछ नया करने को प्रेरित भी करता है ... और जो जरूरी भी है ... संसार भी तो तभी ही चल पाता है ...
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करे माते | बंदा धन्य हुआ अमृत वचनों से :-)
ReplyDeletevicharneey alekh ..
ReplyDeleteजो चीज़ प्राप्त हो जाती है उसके लिए आकर्षण ख़त्म हो जाता है फिर एक नयी चाहत । वैसे जब सब कुछ ऊपर वाले की मर्ज़ी पर ही हो तो गुनहगारों का भी क्या गुनाह ।
ReplyDeletebare loche hain sabdon ki bajigari me.
ReplyDeleteaadmi paya hi kya hai jo kho dega ?uske karne aur hone me fark hai.
ReplyDeleteaadmi ta -umra parchaiyon ke pichhe hi bhagta hai,bhage bhi kyon na rahasya se parda utha hi nahi.aur ke pichhe ,pere ke age ke sunya se wakif hi nahi?
ReplyDeletesirf khana pakhana
ReplyDeleteaur kuchh bhi na jana.
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