Sunday, 10 March 2024

चक्का

चक्कों से शुरु हुई जिंदगी
चक्कों पर ही खत्म हो जाती है

हम सोचते हैं चक्कों पर जीवन संभालना आसान हो जाएगा
किन्तु चक्कों पर ही ज़िन्दगी भारी होती चली जाती है

जन्म के साथ ही जिंदगी की गाड़ी
चक्कों पर आजाती है

फिर उम्र के साथ चक्के बदलते रहते हैं
लेकिन ज़िंदगी चक्को पर ही विराजमान रहती है

समय कब निकल जाता है पता भी नहीं चलता
चक्का चक्का करते करते एक दिन,

उन्हीं चक्कों पर यह जिंदगी गुजर जाती है
कभी हमें कोई धक्का दे रहा होता है

तो कभी कभी हम किसी को धकेल रहे होते है
यही चक्के कब जीवन चक्र बन जाते है

किसी को पता भी नहीं चलता
जिंदगी यूँ ही चक्का दर चक्का

एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे चक्के में
उलझ के रह जाती है और बस यूँही ढलकती चली जाती है.....पल्लवी

8 comments:

  1. जिंदगी की सच्चाई 👌🏼

    ReplyDelete
  2. सुंदर भावपूर्ण जीवन-दर्शन।
    सादर।
    ----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ मार्च २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  3. आधुनिक युग में चक्कों के चक्रव्यूह से निकलना बहुत कठिन है विशेषकर नयी पीढ़ी का

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete