चक्कों से शुरु हुई जिंदगी
चक्कों पर ही खत्म हो जाती है
किन्तु चक्कों पर ही ज़िन्दगी भारी होती चली जाती है
जन्म के साथ ही जिंदगी की गाड़ी
चक्कों पर आजाती है
फिर उम्र के साथ चक्के बदलते रहते हैं
लेकिन ज़िंदगी चक्को पर ही विराजमान रहती है
समय कब निकल जाता है पता भी नहीं चलता
चक्का चक्का करते करते एक दिन,
उन्हीं चक्कों पर यह जिंदगी गुजर जाती है
कभी हमें कोई धक्का दे रहा होता है
तो कभी कभी हम किसी को धकेल रहे होते है
यही चक्के कब जीवन चक्र बन जाते है
किसी को पता भी नहीं चलता
जिंदगी यूँ ही चक्का दर चक्का
एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे चक्के में
उलझ के रह जाती है और बस यूँही ढलकती चली जाती है.....पल्लवी
जिंदगी की सच्चाई 👌🏼
ReplyDelete🙏🙏
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण जीवन-दर्शन।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ मार्च २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आधुनिक युग में चक्कों के चक्रव्यूह से निकलना बहुत कठिन है विशेषकर नयी पीढ़ी का
ReplyDeleteबहुत बहुत
ReplyDeleteजी
ReplyDeleteसुन्दर
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