Wednesday, 29 January 2014

बस यूँ ही...

अजीब दास्‍तान है ये कहां शुरू कहां खत्म
ये मंज़िलें हैं कौन सी न वो समझ सके न हम....

सच ज़िंदगी भी तो ऐसी ही है। ठीक इसी गीत की पंक्तियों की तरह एक कभी न समझ आनेवाली पहेली। एक लंबा किन्तु बहुत छोटा सा सफरजिसकी जाने कब साँझ ढल जाये, इसका पता ही नहीं चलता। न जाने कितने भावनात्मक रास्तों से गुज़रता है यह ज़िंदगी का कारवां, लेकिन अंतिम पड़ाव आते-आते तक हाथ फिर भी खाली ही रह जाते हैं और दिल एकदम भरा-भरा...खुद का दिमाग ही जैसे दुश्मन बन जाता है और बार-बार डांट-डांट कर बस यही कहता है कि क्या पाया तुमने इंसान होकर? अरे तुम से अच्छे तो ये पंछीनदियाँपवन के झोंके हैं। जानते हो क्यूँक्‍योंकि कोई सरहद न इन्हें रोके।

मगर तुम...तुम तो खुद अपनी ही बनाई हुई सरहदों में अटक कर रह गए। न आगे जा सके न पीछे हट सके। हमेशा तुमने बस अपने अहम को तुष्ट करने की ही सोची। कभी किसी के स्वाभिमान या मान-सम्मान के विषय में तो तुम सोच ही नहीं पाये। सोचते भी कैसे, इंसान जो ठहरे। लेकिन एक बात तो बताओ। आखिर इंसान है क्यागलतियों का एक पुतला, जो ज़िंदगीभर गलतियाँ कर-कर के ही सीखता है किन्तु फिर भी गलतियाँ करना नहीं भूलता।

कुछ महानुभव गलती छोड़ गुनाह कर बैठते हैं और कहते हैं इसमें भी मेरी गलती कहाँ है। क्योंकि इस दुनिया का कर्ताधर्ता तो वो ऊपरवाला है ना। कहते हैं उसकी मर्ज़ी के बिना तो एक पत्ता तक नहीं हिलता। यदि यही सच है तो फिर गुनहगारों से गुनाह करवानेवाला भी तो वही हुआ ना। लेकिन वो भी शायद इसी जुमले को सच मानता है कि करे कोई भरे कोई’ यानि कि इंसान से गुनाह करवाए वो ऊपरवाला और सज़ा भी वही दे। यानी यह तो वही बात हुई कि चित भी मेरी और पट भी मेरी और तू (इंसान) मेरे हाथ की कठपुतली। जिसे मैं जब चाहूँ, जहां चाहूँजैसे चाहूँ, अपने इशारों पर नचा सकता हूँ। अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक अपने मनोरंजन के लिए कुछ भी करवा सकता हूँ। फिर चाहे तुम उसे गलती का नाम दो या गुनाह का, पाप कहो या पुण्य तुम्हारी मर्ज़ी। मगर तुम सब अक्ल के अंधे करोगे वही जो मैं चाहूँगा।

खुद ही सोचो कितनी अजीब बात है ये कि जिस वस्तु को पाने के लिए तुम रात-दिन एक कर देते होजिस एक चीज़ को पाने के लिए मेरे सामने सदा रोते-बिलखते गिड़गिड़ाते रहते होयहाँ तक कि उस चीज़ को पाने के लिए तुम भिखारी तक बन जाने से भी ज़रा नहीं हिचकिचाते और जब मैं तुम पर दया करके तुम्हें तुम्हारी वही प्रिय वस्तु या चीज दे देता हूँ तो अगले ही पल तुम्हारे मन से उस चीज़ को पाने की खुशी यकायक जाने कहाँ लुप्त हो जाती है। यह देख कभी-कभी तो मैं स्वयं भी सोच में पड़ जाता हूँ कि यह मानव मन भी कैसा विचित्र है जिस प्राप्य की आकांक्षा में जमीन-आसमान एक किया जाता है, वही प्राप्त होने पर तुच्छ क्यूँ लगता है। अनदेखी की अनुभूति क्यूँ देता है। 

फिर मुझे याद आता है कि एक इंसान कभी संतुष्ट ही कहाँ होता है। एक मनोकामना पूर्ण होने से पहले ही दूसरी जो जन्म ले लेती है। इसलिए तो मैं कभी तुम्हें पूर्ण संतुष्ट नहीं करता। क्योंकि मैं जितना भी दूँ तुम को सदा कम ही लगता है। लेकिन तुम यह नहीं जानते जीवन की यही कमी तुम्हारे जीवन की निरंतरता बनाए रखने की बूटी है। क्योंकि यदि इंसान संतुष्ट हो गया तो अपने जीवन पथ पर कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा....और यदि ऐसा हुआ तो ज़िंदगी, ज़िंदगी ही कहाँ रह जाएगीक्योंकि बहते हुए पानी को भी यदि रोक दिया जाये तो उसमें से भी बदबू आने लगती है यह तो फिर भी ज़िंदगी है...सोचो ज़रा यह रुक गयी तो फिर इस संसार का क्या होगा....                   

Thursday, 2 January 2014

कल रात

 
सुनो जानते हो कल फिर आया था चाँद मेरे द्वारे। 
मेरे कमरे की खिड़की में टंगे जाली के पर्दे की ओट से 
चुपके-चुपके देख रहा था वो कल रात मुझे
इस बार चाँदनी भी साथ थी उसके 
कुछ कम उदास नज़र आया वो मुझे कल रात 
शायद अब मन हलका हो गया है उसका 
तभी तो चांदनी को भी मना लिया उसने कल रात 
ऐसा लगा मुझे कल रात   
जैसे दोनों किसी छोटे नन्हे शिशु की तरह खेल रहे हों मेरे साथ
जैसे चाँदनी मुझसे कह रही हो कल रात  
कि शुक्रिया दोस्त मुझे मेरा हँसतामुसकुराता चाँद लौटाने के लिए 
तुमने मुझे मेरा चाँद लौटाया है 
तो मैं भी तुम्हें कोई तोहफा जरूर देना चाहूंगी
 बस तुम ना मत करना 
और अचानक मेरे चेहरे पर चाँदनी 
 अपनी अद्भुत चमक के साथ 
टूटती हुई मोती की माला की तरह बिखर गई
और छोड़ गई अपने उस अद्भुत सौंदर्य का एक अंश 
मेरे चेहरे पर कल रात
फिर उसी सौंदर्य और भरपूर चमक को लिए 
वो हँसती-खिलखिलाती हुई जा मिली अपने चाँद के साथ 
ऐसे जैसे सागर में नदिया और फूल में खुशबू मिले  
आखिर में दोनों हाथों में हाथ डाले
हवा के बिछौने पर बादलों की ओढ़नी लिए नभ में छिप गए
तब ऐसा लगा मुझे 
जैसे चाँद के मुख पर लगे खामोशी के सभी बादल छंट गए....