ज़िंदगी की सारी खुशियाँ जैसे मौन हो कर रह गयी
वो छोटे-छोटे खुशनुमा पल
वो गरमियों की छुट्टियों में चंगे अष्टे खेलना
वो रातों को सितारों की चादर तले देखना
वो करना बात कुछ आज की, कुछ कल के सपनों को देखना
वो लगाना आँगन में झाड़ू और पानी का फिर फेंकना
प्यासे पेड़ों को पानी दे, वो पत्थरों पर खींच के खांचा
फिर लंगड़ी-लंगड़ी खेलना
वो कैरी का पना
वो पुदीने की चटनी
वो भर भर उंगली से चाटना
वो नानी के घर आँगन तले नीबू का रस निकालना
वो बना के शिकंजी झट शक्कर उसमें फिर घोलना
वो गन्ने का रस
वो जलजीरे के मटके
वो छागल का पानी
वो ठेले पे बिकते थे खीरे के टुकड़े
यूं लगते थे जैसे हो हीरे के टुकड़े
वो माँ का, आँचल से पसीना पोंछना
ज़िद कर-कर के खाना, वो मटके की कुल्फी
वो घड़ी-घड़ी शरबत बना के पीना
वो रसना
वो रूहफ़्ज़ा
वो शर्बत-ए-आजम
वो ठंडी बर्फ से फिर कॉफी बनाना
मगर अब ना नानी का घर है
क्यूंकि कुछ न कुछ सीखने की फिकर है
न रहा शर्बत तो क्या,? कोल्ड ड्रिंक्स क्या भला शर्बत से कम है!!!
चटनी का क्या है, सॉस जो यहाँ है।
माँ के आँचल से चेहरा छिला है।
वेट टिशू भला किस मर्ज की दवा है।
आइसक्रीम भला किसे कब बुरा लगा है।
पर मटके न जाने कब से बेधुला है।
गर्मी बहुत है कि खेलना मना है
इसलिए शायद
यह वीडियो गेम और अब आई पेड चला है।
लगता है अब तो ऐसे, जैसे घर में हिन्दी बोलना भी गुनाह है :-)
सच इस सब में जैसे ज़िंदगी ही गुम हो के रह गयी
के यूं लगता है अब तो जैसे
ज़िंदगी की सारी खुशियाँ मौन हो कर रह गयी ...
वो छोटे-छोटे खुशनुमा पल
वो गरमियों की छुट्टियों में चंगे अष्टे खेलना
वो रातों को सितारों की चादर तले देखना
वो करना बात कुछ आज की, कुछ कल के सपनों को देखना
वो लगाना आँगन में झाड़ू और पानी का फिर फेंकना
प्यासे पेड़ों को पानी दे, वो पत्थरों पर खींच के खांचा
फिर लंगड़ी-लंगड़ी खेलना
वो कैरी का पना
वो पुदीने की चटनी
वो भर भर उंगली से चाटना
वो नानी के घर आँगन तले नीबू का रस निकालना
वो बना के शिकंजी झट शक्कर उसमें फिर घोलना
वो गन्ने का रस
वो जलजीरे के मटके
वो छागल का पानी
वो ठेले पे बिकते थे खीरे के टुकड़े
यूं लगते थे जैसे हो हीरे के टुकड़े
वो माँ का, आँचल से पसीना पोंछना
ज़िद कर-कर के खाना, वो मटके की कुल्फी
वो घड़ी-घड़ी शरबत बना के पीना
वो रसना
वो रूहफ़्ज़ा
वो शर्बत-ए-आजम
वो ठंडी बर्फ से फिर कॉफी बनाना
मगर अब ना नानी का घर है
क्यूंकि कुछ न कुछ सीखने की फिकर है
न रहा शर्बत तो क्या,? कोल्ड ड्रिंक्स क्या भला शर्बत से कम है!!!
चटनी का क्या है, सॉस जो यहाँ है।
माँ के आँचल से चेहरा छिला है।
वेट टिशू भला किस मर्ज की दवा है।
आइसक्रीम भला किसे कब बुरा लगा है।
पर मटके न जाने कब से बेधुला है।
गर्मी बहुत है कि खेलना मना है
इसलिए शायद
यह वीडियो गेम और अब आई पेड चला है।
लगता है अब तो ऐसे, जैसे घर में हिन्दी बोलना भी गुनाह है :-)
सच इस सब में जैसे ज़िंदगी ही गुम हो के रह गयी
के यूं लगता है अब तो जैसे
ज़िंदगी की सारी खुशियाँ मौन हो कर रह गयी ...
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeletenice,FIRAK ENGLISH AUR BACCHAN JI BHI TO ENGLISH KE HI THE, BADI KHUSHI HUYEE
ReplyDeleteवो बचपन के दिन भी क्या दिन थे,,,
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन सुंदर रचना,,,
RECENT POST : बेटियाँ,
बहुत सुंदर
ReplyDeletesach hai. accha likha hai
ReplyDeleteसंवेदनशील मन के लिए तो यादें ही सहारा हैं ..
ReplyDeleteशुभकामनायें !
Kitna sab yaad kara gayin aap aaj sunday ke subah :)
ReplyDeleteमन बावरा पुरानी वीथियों में ही बसना चाहता है .......
ReplyDeleteरह गई हैं बस यादें = जाने कहाँ आ गए हम,कहाँ जायेंगे !!!
ReplyDeleteभावपूर्ण बढ़िया मनभावन रचना ...
ReplyDeleteअब बचपन भी बदल गया है ....ये सब बातें किस्से कहानी लगती हैं .... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसमय के अंतर को भावनाओं के आँचल में उतारा है ...
ReplyDeleteबीते अतीत की यादें हर कदम पे याद आती हैं ... कहानियों की तरह बन के रह गई हैं वो बातें अब ...
वो कैरी का पना,वो पुदीने की चटनी
ReplyDeleteवाह!मुहँ में पानी आ गया
जिन्दगी मौन हो कर ही रह गई है, ऐसे हालातों में।
ReplyDeleteआज के बच्चो को शायद ही पता हो चंगे अष्टे स्टापू...
ReplyDeleteयादें जब भी याद आती हैं ...सुहाने पल साथ लाती हैं !!!!
ReplyDeleteशुभकामनायें!
EVOLUTION OF MAN अभी भी हो रहा है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत कविता ...अहसास ही अहसास
ReplyDeleteमैं अपने बचपन में और पीछे जाती हूँ
वो खुली छत
आसमां पर
खिले हुए तारे
कभी कोई ध्रुव तारे को देखा
कभी सप्त ऋषि
तारों को गिनना
और बातों ही बातों में
खरबूजे के सूखे बीजों को
खाते हुए
अपनी ही बातों में खो जाना
ज़मीन पर पीछे बिछौने
का तो बुरा हाल हो जाता था ...............(और भी बहुत कुछ.....फिर कभी :) )
26 May 2013 08:47
बहुत उम्दा रचना, भिगो दिया बचपन के रस में आपने ...............हम सबको ****
ReplyDeleteयादों के मेले में उछलता कूदता बचपन
ReplyDeleteफेस्बूक पर संदेश द्वारा मिली R.D Saxena जी की यह टिप्पणी बहुत याद आता है न ! जो संवेदनशील रहे उन सभी को याद आता है ! जो सादगीपूर्ण आडम्बरहीन रहे , उन सभी को याद आता है ! लेकिन किया क्या जाए ? न तो वे दिन लौट कर आ सकते है न वो ज़माना ! अब हम सभी भौतिकवादी हो गए ! आर्थिक गणित में खो गए ! अंतहीन दौड़ में दौड़ पड़े ! अब भी बगीचा है लेकिन इस दौड़ में दौड़ते हुए हम बगीचे में नहीं सुस्ता सकते ! बस, हो सके तो नयी पीढी को उस दौर से चुराया स्नेह का थोड़ा सा अंश दे दो ! मिठास दे दो ! थोड़ा गाँव सा अहसास दे दो ! थोड़ी सी देशज गंध दे दो ! सवाल यह कि इनमे से कुछ देने के लिए हमारी झोली में कुछ बचा भी है ? या हमने ही उसे नष्ट कर दिया !!
ReplyDeleteकेवल उन दिनों की यादें ही बाकी हैं...बचपन के दिन फिर याद दिला दिये...
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteSend Gifts to India Online from Gift Shop | Order Online Gifts Delivery in India Online
ReplyDelete