Friday, 30 March 2012

प्रकृति और साथ ज़िंदगी का ....


कभी सोचा है प्रकृति और इंसान के साथ के गहरे रहस्य को
जैसे एक ही सिक्के के दो पहलुओं सा साथ 
एक के बिना दूजा अधूरा
जैसे मन के भाव वैसा प्रकृति का स्वभाव  
क्यूंकि एक प्रकृति ही तो है 
जो इंसान के साथ सदा होती है
वो कहते हैं ना 
"ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी"    
कभी महसूस किया है तुमने प्रकृति को बात करते  
जब खुश होता है हमारा मन या उदास होता है 
तब अक्सर प्रकर्ति का ही तो हमेशा साथ होता है
कभी एक हमसफर का रूप तो कभी माँ का स्वरूप  
अक्सर बातें करते हैं तब यह नदिया, यह पहाड़, यह झरने 
वो नदी का किनारा, वो पेड़, वो फूल, वो पत्तियाँ भी कभी-कभी 
वो चाँद वो तारे ज्यों दोस्त हो हमारे फिर क्या यह धरती और क्या आकाशा 
सारी कायनात जैसे हमारों ही इशरों पर चल, देने लगती है हमारा ही साथ 
अक्सर प्यार में पागल मन गुंगनाने लगता है वो गीत 
पंछी ,बादल प्रेमी के पागल हम कौन है साथिया....
और मन कहता है याद नहीं भूल गया हो याद नहीं भूल गया 
और जब मन उदास होता है तो
जैसे यही खूबसूरत नज़ारे अचानक दिल की चुभन बन जाते है एक सुलगती हुई 
मन में दबी आग मगर संगीत तो संगीत ही होता है चाहे गम का हो, या खुशी का 
और उदास होने पर भी मन गाता है 
यह रात खुशनसीब है जो अपने चाँद को 
कलेजे से लगाए सो रही है यहाँ तो ग़म की सेज पर हमारी आरज़ू अकेली मुंह छुपाये रो रही है 
इंसानी मन और उसके मानोभाव तो आज तक खुद इंसान नहीं समझ सका है 
तो कोई और क्या समझेगा भला  
क्यूंकि जब भी की है कोशिश किसी ने 
इस राज़ को समझ पाने की 
तब तब पलटा है ज़िंदगी और प्रकृति दोनों ही ने 
मिलकर इंसानी ज़िंदगी की किताब का एक पन्ना
जिसे नए सिरे से लिखने और समझने के लिए  
 फिर एक बार हो इंसान प्रकृति और साथ ज़िंदगी का....    


7 comments:

  1. हाँ प्रकृति पर ही आरोपण करतें हैं हम अपने मनोभावों का मन उदास हो तो कहतें हैं शाम बहुत उदास थी ,रात भी थी कुछ मध्धम मध्धम ...नदिया चले ,चलेरे धारा ,चंदा चले, चले रे तारा ,तुझको चलना होगा ...चढ़ना है हमें चंदा की तरह सूरज की तरह नहीं ढलना है ,हमें उन राहों पर चलना है जहां गिरना और संभालना है .....,ये कहानी है दिए की और तूफ़ान की और प्रकृति की विनाश लीला कभी कभार हमारे अपने को लील जाती है हम अपनी प्रकृति के ही अधीन रहते हैं ,प्रकृति नटी के भी ,वह जैसे चाहे नचाये .अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ....

    ReplyDelete
  2. फिर एक बार हो इंसान प्रकृति और साथ ज़िंदगी का....
    वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब पल्लवी जी,..
    सुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,....

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
    MY RECENT POST ...फुहार....: बस! काम इतना करें....

    ReplyDelete
  3. प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  4. यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।

    ReplyDelete
  5. सच है प्रकृति और जीवन साथ साथ चलते हैं। सुन्दर रचना...बधाई....

    ReplyDelete
  6. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...

    ReplyDelete
  7. कभी एक हमसफर का रूप तो कभी माँ का स्वरूप
    अक्सर बातें करते हैं तब यह नदिया, यह पहाड़, यह झरने
    वो नदी का किनारा, वो पेड़, वो फूल, वो पत्तियाँ भी कभी-कभी
    वो चाँद वो तारे ज्यों दोस्त हो हमारे फिर क्या यह धरती और क्या आकाश
    ..पल्लवी जी जिन्दगी और प्रकृति का अच्छा संगम ..प्यारे सखी सखा हमारे ..मनभावन रचना ..सटीक छवि .... जय श्री राधे
    भ्रमर ५

    ReplyDelete