Monday, 9 January 2012

भावनायें....

लिखने जाती हूँ जब 
कोरे कागज़ पर अपने 
जज़्बात तो ऐसा लगता है 
जैसी सियाही के रूप में 
मन की अभिव्यक्ति पिघल-पिघल 
कर बह रही हो भावनाओं में 
सागर की तरह, 
जिसका हर एक शब्द  
जो दिखने में ऊपर से 
बहुत शांत दिखाई देता है 
मगर अंतस में उठ रहा है सेलाब
भावनाओं का 
कुछ कही-अनकही सी भावनायें 
कुछ जानी पहचानी सी भावनायें 
कुछ बनती बिखरती भावनायें 
जैसे साहिल पर पड़ी रेत 
से बने हुए सपनों के महल  
तब तक टीके रहते हैं 
जब तक रेत 
नम होती है वक्त रूपी सूरज 
की तपिश पाते ही 
खो जाती है सारी नमी 
और टूट कर बिखर जाता है 
उन रेत के महलों 
का अस्तित्व 
मन की भावनाओं की तरह....  

8 comments:

  1. लिखने जाती हूँ जब
    कोरे कागज़ पर अपने
    जज़्बात तो ऐसा लगता है
    जैसी सियाही के रूप में
    मन की अभिव्यक्ति पिघल-पिघल
    कर बह रही हो भावनाओं में ... बिल्कुल ऐसा ही तो लगता है

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  2. बेहतरीन रचना

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  3. कहते हैं भावनाओं मे बहना नहीं चाहिए...लेकिन यह कविता अपने साथ बहा ले जाती है।

    सादर

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  4. भावनाओ की सच्ची अभिव्यक्ति है.बहुत खूब.

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  5. Bahut hi sundar rachna pallavi ji..
    kitna sateek vivran diyaa hai aapne likhne k samay ki bhaavnaao ka..
    mazaa aa gaya..

    aur jo ret aur paani par aapka khayaal hai.. usi k upar kuch maine bhi likha tha..
    waqt mile to padhiyega.. :)
    http://palchhin-aditya.blogspot.com/2011/09/blog-post_27.html

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  6. vicharon ko likhna aur anubhuti paida karna bahut hi badi bbaat hai

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